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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
13.गृहस्थों के लिये मुक्ति का मार्ग
इसके बाद अब गृहस्थाश्रम धर्म का वर्णन आता है। युधिष्ठिर कहते हैं - भगवान मैं तो ‘गृहमूढधी’ गृहासक्त मूढ़ व्यक्ति हूँ, अतः आप मुझे उपदेश दीजिए।
एक गृहस्थ पुरुष की मुक्ति का मार्ग बताइये। सभी गृहस्थों के लिए यह ध्यान देने योग्य बात है।
गृहं स्र्वात्मना त्याज्यं गृह को तो सभी प्रकार से छोड़ देना चाहिए और यदि वह सम्भव नहीं हो तो उसे भगवान को अर्पण करना चाहिए। यह घर मेरा नही भगवान का है मैं भी भगवान का हूँ यहाँ जो लोग हैं वे भी भगवान के हैं मैं ऑफ़िस जाता हूँ तो भगवान के लिए जाता हूँ घर में जो स्त्री खाना बना रही है उसको यह भाव रखना चाहिए कि मैं भगवान के लिए भोजन बना रही हूँ हम जो भी सेवा करें वह सब भगवान के लिए हो पुरुष के लिए बताया गया है कि जब घर में अतिथि आएँ तब घर में जो भी चीज हो उसे उनकी सेवा में लगा दे, अपने लिए उतना ही रखे जितना अपने पेट के लिए जरूरी हो। उससे ज्यादा जो रखता है वह चोर है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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