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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
द्वादश स्कन्ध
अब द्वादश स्कन्ध का प्रारम्भ होता है। बारहवाँ स्कन्ध श्रीमद्भागवत का अन्तिम स्कन्ध है। एक सम्प्रदाय की दृष्टि से इसमें आश्रय तत्त्व बताया गया है और दूसरे सम्प्रदाय की दृष्टि से इसमें निरोध बताया गया है, निरोध अर्थात प्रलय। सर्ग-विसर्ग के क्रम के अनुरूप द्वादश स्कन्ध तथा दशम स्कन्ध के नाम विभेद की चर्चा हम दशम स्कन्ध में कर चुके हैं। 1.कलियुग के गुण-दोषराजा परीक्षित शुकदेव जी से पूछते हैं कि जब भगवान अपने धाम चले गये, तब पृथ्वी पर किसका राज्य हो गया, आगे कौन से राजा होंगे? इसके उत्तर स्वरूप श्री शुकदेव जी ने आगे आने वाले कलियुगी राजवंशों का वर्णन किया और तत्पश्चात कलिधर्म का निरूपण किया। कलियुग में लोग कैसे होंगे इसका वर्णन हम प्रथम स्कन्ध में देख ही चुके हैं। भागवत माहात्म्य में भी देख चुके हैं, और दूसरी बात यह है कि हम स्वयं कलियुग में ही हैं, अतः अधिक व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। कलियुग में क्या-क्या होता है, यह तो स्पष्ट ही है। आगे यह बताया गया है कि सत्ययुग में तप तथा ध्यान साधन है, त्रेतायुग में यज्ञ, द्वापर में पूजा तथा कलियुग में केवल भगवान के नाम का आधार है। ‘कलियुग केवल नाम अधारा’ कलियुग में भगवन्नाम रूपी आधार के द्वारा ही इस भवसागर को पार करना है। कलिदोष के निरास के लिए केवल एक ही उपाय है और वह है भगवन्नाम संकीर्तन।
शुकदेव जी कहते हैं, ”राजन्! अब तुम भगवान को अपने हृदय में बिठाकर उनका कीर्तन करते रहो।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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