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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
33.ऐलगीत
आगे भगवान कहते हैं कि ये गुण ही व्यक्ति को सदा मोहित करते रहते हैं। इनसे सावधान रहना चाहिए। भोग में आसक्त नहीं होना चाहिए। भिक्षुगीत में हमने देखा कि धन में आसक्त एक ब्राह्मण विरक्त भिक्षु होकर गाने लगा। अब आगे पुरूरवा के ऐलगीत का वर्णन आता है। राजा पुरूरवा पहले उर्वशी में अति आसक्त था। उसके मन में जब वैराग्य का उदय हुआ तो वह विचार करने लगा कि मैं कैसा दुष्ट, पापी और नीच व्यक्ति हूँ। मैं पिण्ड से, देह से प्रगाढ़ तादात्म्य (अत्यन्त आसक्ति), करके बैठ गया। ऐसा सोचकर वह स्वयं को धिक्कारने लगा और फिर उसने स्वयं को कामवासना से मुक्त कर लिया। भिक्षु ने अर्थासक्ति छोड़कर राजा पुरूरवा ने कामासक्ति छोड़कर स्वयं को मुक्त कर लिया। कहने का भाव यह है कि वैराग्य का, ज्ञान का प्रारम्भ कहीं से भी हो सकता है। लेकिन पहुँचना तो भगवद्भक्ति में ही है। पूर्व में कोई गलत काम हो भी गया हो, तो ‘मैंने ऐसा क्यों किया?’ यह सोचते रहने में कोई लाभ नहीं है। पहले जो हुआ सो हुआ, अब उसे छोड़कर भगवान का ध्यान करो और आनन्द लो। हम लोग तो वर्तमान में भी आनन्द नहीं ले पाते। इस प्रकार भगवान ने ऐलगीत का वर्णन किया। 34.क्रियायोगअगले अध्याय में भगवान क्रिया योग बताते हैं। क्रिया योग क्या है? भगवान की आराधना करना, षोडश उपचारों द्वारा भगवान की पूजा करना ही क्रिया योग है। भगवान का ध्यान, आह्वान, उसके बाद आसन, अर्घ्य, पाद्य, धूप, दीप, नैवेद्य आदि समर्पित करना, फिर आरती आदि के द्वारा भगवान का पूजन करना और पूजन करते-करते, धीरे-धीरे इन सभी के परे चले जाना - यही क्रियायोग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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