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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.जय-विजय को आसुरी योनि की प्राप्ति
भगवान नारायण वैकुण्ठ लोक में रहते हैं श्रीदेवी लक्ष्मी जी उनकी पत्नी हैं। उनके दो द्वारपाल है, जय और विजय। जो भगवान के बड़े श्रेष्ठ, ऊँची कोटि के भक्त होते हैं, उन्हीं को ऐसा स्थान प्राप्त होता है। वास्तव में जय-विजय का अर्थ है इन्द्रियजय और मनोविजय। देखो भगवान के पास वे ही दो द्वारपाल होगे, है न? भगवान के पास, उनसे मिलने जाना हो, तो क्या कोई यों ही पहुँच जायेगा? वे पूछेंगे क्या अपनी इन्द्रियों पर जय पा ली है? अपने मन के ऊपर विजय पा ली है? तो जब तक जय-विजय की अनुमति नहीं मिलती, तब तक भगवद धाम में प्रवेश भी नहीं मिलता। ऐसी बात है। लेकिन, इनके मन में अभिमान आ गया। कभी-कभी हमको भी मनोजय और इन्द्रियविजय का अभिमान हो जाता है। हमको लगता है कि हमने इन्द्रियों को जीत लिया है, मन को जीत लिया है। जहाँ ऐसा सोचा, वहीं हम वेकुण्ठ से नीचे गिर जाते हैं। ये जो पुराणों की कहानियाँ हैं न, वे बड़ी रोचक होती हैं। उनमें बहुत बड़ा मनोविज्ञान और अध्यात्मज्ञान भरा रहता है। जय-विजय बड़ा अभिमान हो गया कि हमारी अनुमति के बिना कोई अंदर नहीं जा सकता। एक बार लक्ष्मीजी आयीं तो उनको भी इन्होंने रोक दिया। लक्ष्मीजी को बड़ा गुस्सा आया कि लो! ये तो मुझे ही अन्दर नहीं जाने देते। वे नाराज होकर अंदर गयीं, और भगवान से कहने लगीं कि पहले इन दोनों को यहाँ से निकाल दीजिए। नारायण भगवान ने कहा- क्या हुआ? पहले बताओ तो सही। हुआ यह कि ये मुझे ही रोकते हैं। भगवान ने कहा यह तो इन्होंने बड़ा ही गलत काम किया। लेकिन तुम्हारे कहने से मैं इन्हें निकालूँगा तो सब लोग कहेंगे कि ये पत्नी के कहने से काम करते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। अतः जैसे ही वे किसी ब्राह्मण का संत का अपमान करेंगे, वैसे ही मैं उन्हें निकाल दूँगा। भगवान के कहने का अर्थ यह है कि मुझे या मेरे रिश्तेदारों को कुछ कहा और उस पर मैं निकाल दूँ, तो लोग कहेंगे कि देखो सिर्फ अपने रिश्तेनाते वालों का सोचते हैं। दूसरे लोगो को रोकते हैं, तब तो आपको कुछ नहीं लगता है। तो यह बहुत सम्मान की बात नहीं होगी। लेकिन साधु-संत का अपमान करने पर निकालते हैं, तब तो यही बात सिद्ध होगी कि देखो भगवान साधु-संतो को कितना सम्मान करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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