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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
50.उद्धव जी की व्रजयात्रा
उद्धव जी भगवान के उत्सवमूर्ति कहलाते हैं। आपने मन्दिरों में देखा होगा, एक तो मुख्य मूर्ति होती है, जो प्राण प्रतिष्ठित होती है और दूसरी उत्सव मूर्ति होती है, क्योंकि जब कभी कोई उत्सव हो और कोई शोभा यात्रा निकालनी हो तो प्रतिष्ठित मूर्ति को नहीं उठाते। दूसरी जो उत्सव मूर्ति होती है उसी को रखकर यात्रा निकाली जाती है। उद्धव जी भगवान श्रीकृष्ण के परम सखा हैं, वृष्णि कुल के प्रधान पुरुष हैं, वृहस्पति के श्रेष्ठ शिष्य हैं और श्रीकृष्ण शिष्य हैं और श्रीकृष्ण के मन्त्री भी हैं। एक दिन भगवान उद्धव जी को बुलाकर उनसे कहते हैं, “मेरा संदेश लेकर व्रज में जाओ और मेरे नन्दबाबा, यशोदा मैया, गोप, गोपबालों को और गोपियों को प्रसन्न करो।” ऐसा कहकर भगवान उद्धव जी को गोपियों के पास व्रज में भेजते हैं। एक तो इसलिए कि उद्धव जी उनके जैसे ही हैं। तो अपने जैसा मानकर, माने उद्धव गया तो मैं ही गया ऐसा समझकर, उन्हें व्रज में भेजते हैं। दूसरी बात यह थी कि उद्धव जी को थोड़ा अपने ज्ञान का अभिमान भी था। भगवान श्रीकृष्ण जब गोपियों को याद करते थे, तो वे कहते थे- क्या आप हमेशा उनको याद करते रहते हो। उद्धव जी को बड़ा अजीब लगता था कि ऐसी भी क्या बात है उनमें? गाँव की अनपढ़ स्त्रियाँ ही तो हैं, थोड़ा-सा मक्खन वगैरह खिलाती रही होंगी, तो उनको इतना क्या याद करना? उनको गोपियों का माहात्म्य पता ही नहीं था। भगवान चाहते थे कि उद्धवजी को जो अभिमान है, वह मिट जाये और उन्हें थोड़ा-सा शुद्ध प्रेम भी प्राप्त हो जाये। ऐसा सोचकर भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव जी को व्रज में भेज दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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