विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
9.सामान्य-धर्म
अब देखो, जिसका जैसा स्वभाव हो, जिसके जैसे संस्कार हों वैसा ही उसका धर्म होता है। तात्पर्य यह है कि एक तो आश्रम के अनुसार धर्म होता है और दूसरा वर्ण के अनुसार। इनके अतिरिक्त एक सामान्य धर्म होता है - सद्गुणों का। वह सब के लिए समान होता है, चाहे कोई ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो। ब्राह्मणों को ईमानदारी से पढ़ना चाहिए, पढ़ाना चाहिए। तो क्या वैश्य को बेईमानी से व्यापार करना चाहिए? क्षत्रिय को, राजनेता को क्या बेईमानी से काम करना चाहिए? ऐसा नहीं। सद्गुणों का धर्म समान होता है, चाहे कोई किसी भी आश्रम में हो या किसी भी वर्ण में हो, स्त्री हो या पुरुष कोई भी हो, किसी भी जाति-धर्म का हो, किसी भी देश का हो या किसी काल का हो। इसलिए युधिष्ठिर ने ऐसा जब पूछा कि ‘धर्म क्या है’ तो पहले नारद मुनि ने सामान्य धर्म क्या है, वह बताया। मनुष्य चाहे जिस अवस्था में हो, उसमें ये सद्गुण अवश्य होने चाहिए। वे धर्म के मूल हैं। वे क्या हैं? सत्य - सत्य अर्थात हम जिसे प्रमाण द्वारा जानते हैं उसे उसी प्रकार प्रकट करना; दया - प्राणी मात्र के ऊपर दया करना यानी चित्त का द्रवित होना; तप - अपने ऊपर संयम रखना; शौच - शरीर तथा मन की शुद्धि; तितिक्षा - सुख-दुःख को सहन करने की शक्ति; दम - इन्द्रियों का संयम; शम - मन का संयम; अहिंसा - किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाना; ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य का वैसे तो अर्थ होता है मैथुन का सर्वतः त्याग करना। लेकिन वस्तुत ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है - ब्रह्म जो जगत का सत्य है, उस सत्य को जानने के लिए जो कोई व्रत करना पड़े उसे करने की तैयारी; |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज