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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.तत्त्व का स्वरूप
अब, कोई कह सकता हैं कि महाराज यह तो ठीक है कि हमारे जीवन का प्रयोजन तत्त्व की जिज्ञासा है। परन्तु अब प्रश्न यह उठता है कि तत्त्व किसे कहते हैं? तत्त्व क्या है? सत्य क्या है? अतः अब यह बताते हैं कि तत्त्व किसे कहते हैं।
वह जो तत्त्व है, उसी को ब्रह्म कहते हैं, उसी को परमात्मा कहते हैं, उसी को भगवान कहते हैं। उसका स्वरूप क्या है? ‘अद्वयं ज्ञानं’ जो अद्वितीय चैतन्य है, सच्चिदानन्द स्वरूप है, वही तत्त्व है, और वही हमारा स्वरूप है! और जैसा कि हम देख चुके हैं, भागवत ग्रंथ, भगवान और भक्त इनमें कोई भी भेद नहीं होता है, एक ही अद्वय तत्त्व अनेक नाम-रूपों में हमको दिखाई दे रहा है, वही ‘तत्त्व’ है। अब उदाहरण के लिए, जब हम स्वप्न देखते हैं, तो स्वप्न में असंख्य पदार्थ दीखते हैं और हर चीज को हम अलग-अलग समझते रहते हैं। लेकिन बताओं क्या यह वास्तविक ज्ञान है? क्या यह सत्य नही है कि केवल हमारा एक मन ही स्पप्न में अनेक रूपों में प्रकट हो जाता हैं? जब यह समझ में आ जाता है कि एक ही तत्त्व सब रूपों में दिखाई दे रहा है, तब उसे असली ज्ञान कहते हैं। वास्तव में तो चैतन्य तत्त्व ही मन के रूप में दिखाई दे रहा है, स्फुरित हो रहा है, और यह मन ही अनेक नाम-रूपों में प्रकट हो रहा है। उस एक तत्त्व का बोध हो जाना ही तत्त्व हैं, जैसे- कोई दर्शन शास्त्र तीन तत्त्व बताता है, तो कोई चार। कोई पच्चीस, तो कोई छब्बीस, कोई अठ्ठाइस, तो कोई अनन्त तत्त्व भी बताता है वह सब-का-सब आपेक्षिक हैं तत्त्व तो एक ही है वही ‘ज्ञानं अद्वयं’ है।
वह तत्त्व, वह परमात्मा ही ब्रह्म कहलाता है। उसी को भगवान कहते हैं। अब बताइये, लोंगों को लगता है भगवान माने कहीं सातवें आसमान पर कोई बैठा हुआ है। उसको हम पर जरा भी दया नहीं आती। और लोग कहते हैं- भगवान आप क्या अंधे हो गये हो? बहरे हो गये हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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