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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
18.पुरञ्जनोपाख्यान का तात्पर्य
तो नारद जी ने कहा कि पुरञ्जन रूपी जीव तुम स्वयं हो। भगवान ही ‘अविज्ञात मित्र हैं’। नवद्वार की नगरी यह शरीर है। स्त्री तुम्हारी बुद्धि है। जीव का जब बुद्धि के साथ तादात्म्य हो जाता है, तो बुद्धि खुश हुई कि जीव (हम) भी खुश, और बुद्धि दुःखी तो हम भी दुःखी। अर्थात मन में जैसी वृत्ति आती है, हम स्वयं वैसे बन जाते हैं, और फिर वैसा ही करने भी लग जाते हैं। जैसे, राग की वृत्ति आयी तो रागी बन गए, काम की वृत्ति आयी तो कामी और क्रोध की वृत्ति आयी तो क्रोधी बन गए। और देखो, वह चण्डवेग तथा उसकी सेना ये सब कौन हैं? काल ही वह चण्डवेग है, और वृद्धावस्था, ज्वर, ताप आदि सब उसकी सेना है। ये सब हमारे शरीर पर आक्रमण करते हैं। तब हम दुःखी होते रहते हैं, क्या करें? अन्ततः देह का त्याग भी करना पड़ता है। फिर जैसे हमारे संस्कार होते हैं, जिसमें हमारी आसक्ति होती है उसी के अनुरूप हम पुनः जन्म लेते हैं। लेकिन देखो, वास्तव में न तो तुम यह देह हो, न जीव, न ही बुद्धि। तुम तो सच्चिदानन्द स्वरूप हो। इस प्रकार नारदजी ने उसको समझाया। सुनकर प्राचीनबर्हि की आँखें खुल गयीं। (सब धुआँ निकल गया) वे बोले, ”महाराज, आपने तो मुझे मुक्त ही कर दिया। दो मिनट में ही मुक्त कर दिया। अब मैं इन्हीं बातों का ध्यान करूँगा।“ ऐसा कह कर वह जंगल में चला गया। देखो, वह इतना चिन्ता-मुक्त हो गया। यह नहीं सोचा कि मेरे दस पुत्र तो जंगल में चले गये हैं। अब मैं भी चला जाऊँ तो राज्य कैसे चलेगा? बस! चल दिए तो चल दिये, बात वहीं समाप्त हो गई। इसके बाद क्या होगा, उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। ऐसा सोचकर वे तो निकल गये और भगवान की भक्ति में उन्होंने अपने मन को इस प्रकार से लगा दिया कि उनकी मुक्ति हो गयी। अब विदुरजी पूछते हैं, ”महाराज, उनके दस पुत्रों का क्या हुआ?“ तब मैत्रेय ऋषि कहते हैं कि पिता की आज्ञा मान कर जब वे तपस्या करने निकले थे, तब नारायण सरोवर के तट पर पहले शिवजी का आशीर्वाद मिल ही गया था। तपस्या के फलस्वरूप साक्षात् नारायण भगवान उन पर प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा, ”तुम लोगों का आपस में जो प्रेम है और मुझमें जो भक्ति है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अब तुम सब जाकर सुखपूर्वक राज्य करो। तुम्हारी भक्ति मुझमें बनी रहेगी।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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