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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
11.ध्रुव-वंश के राजा अंग तथा वेन की कथा
ध्रुव के बदरिकाश्रम जाने के बाद उत्कल ने राज्य स्वीकार नहीं किया। वह तो बड़ा विरक्त था। इसलिए वत्सर राजा बन गया। तत्पश्चात् कुछ पीढ़ियों के बाद उस वंश में अंग नाम का राजा हुआ। और सुनीथा उसकी एक पत्नी हुई (सुनीति नहीं)। उस राजा को पुत्र नहीं हो रहा था अतः वह दुःखी था। किसी प्रकार उसे एक पुत्र हुआ, जिसका नाम वेन था और वह महादुष्ट बन गया। वह ऐसा पापी दुराचारी और क्रूर था कि बच्चों को उठाकर नदी में फेंक देता था। उनका गला घोंट देता था। कहते हैं वह बाहर निकलता था तो लोग कहते थे ‘वेन आ गया, वेन आ गया’ और वहाँ से भाग जाते थे। पुत्र के लिए तड़पने वाले अपने पिता अंग को वेन ने बहुत कष्ट दिया। जैसे धुंधुकारी ने आत्मदेव को दिया था। राजा अंग को ऐसी विरक्ति हो गई कि अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर किसी को पता न चले इस प्रकार रात को उठकर वे घर से निकल गए। बोले - भगवान आपको धन्यवाद! आपने मुझे ऐसा पुत्र दिया कि जिसने मेरी आँखों के सामने ही तारे चमका दिये। अच्छा हुआ जो आपने ऐसा दुष्ट पुत्र दिया। अच्छा पुत्र होता तो मैं संसार में ही आसक्त रहता। अब मुझे समझ में आ गया कि यह संसार बड़ा असार रूप है। घर से निकल कर वे कहाँ गये किसी को पता नहीं चला। अब राजा अंग तो चले गए। पर उनके अभाव में राज्य में सब ओर अशान्ति, उपद्रव होने लगे। सब लोग सोचने लगे कि अब क्या करें? यह लड़का वेन तो बड़ा खराब है। लेकिन क्या करें इसी को राजा बनाकर देख लेते हैं। संभव है राजा बनने पर ठीक हो जाए। देखो, कभी-कभी घरों में भी ऐसा होता रहता है। जब लड़का कोई अनुचित कार्य करने लगता है,तो घर वाले सोचते हैं कि इसकी शादी कर दें तो ठीक हो जाएगा। या फिर इसको आश्रम में भेज दो, शायद वहाँ ठीक हो जाएगा। (लेकिन वह तो आश्रम में जाकर, वहाँ भी उत्पात मचाएगा।) बोले, इसके राजा बना देते हैं, उत्तरदायित्व के कारण संभव है ठीक हो जाए। तो वेन राजा बन गया। उसके भय से वहाँ के सारे डाकू भाग गये। बोले यह राजा इतना दुष्ट है, कि हमको भी मार डालेगा। डाकू तो भाग गए लेकिन वेन स्वयं ही लोगों को सताने लगा। ऋषियों ने सोचा हमने इसे राजा बनाया है, तो अब इसको समझाना भी हमारा ही कर्तव्य बनता है। तब वे जाकर उसे समझाने लगे कि उसका कर्तव्य क्या है। परन्तु वह तो उन्हीं को डाँटने लगा कि आप किसकी बात करते हो? मैं ही यहाँ का भगवान हूँ। ‘वेनाय स्वाहा’, ‘वेनाय इदं न मम’ बोलो। इन्द्राय स्वाहा नहीं! वरुणाय स्वाहा नहीं! कौन से इन्द्र कौन से वरुण, कौन से विष्णु भगवान की बात करते हो? मैं यहाँ का राजा हूँ और राजा ही भगवान होता है। उसी को आहुति देनी चाहिए। उसी को उपहार भी देना चाहिए। साक्षात भगवान तो यहाँ पर मैं हूँ और मुझे कहते हो कि किसी और की पूजा करूँ? उन्होंने देखा कि यह अत्यंत दुष्ट हो गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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