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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
16.परीक्षित की विरक्ति तथा शुकदेव जी का आगमन
अपराध का दण्ड मिला है यह जानकर वे बड़े प्रसन्न हुये। सब छोड़कर गंगा जी के किनारे जाकर बैठ गये। बोले, अब तो मरना ही है, तो गंगा जी के किनारे बैठकर भगवान का नाम लेते हुये देहत्याग कर देंगे। अब आश्चर्य यह हुआ कि राजा परीक्षित के इस निश्चय को सुनते ही सब बड़े-बड़े महानुभाव, ऋषिगण अपने-अपने शिष्यों को लेकर वहाँ आ गए। बताओ! पीक्षित राजा का कैसा भाग्य होगा? वे ऋषि-मुनि कौन-कौन थे? उनका नाम भी सुन लो- अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिेष्टनेमि, भृगु, अंगिरा, पराशर, गाधिसुत विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मबाहु, मेधातिथि, देवल, आषर्ष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान व्यास और नारदजी। बोले, हम इसका मरण देखेंगे। तो परीक्षित सत्संग के लिये बैठै हैं, और ये सब उन्हें सत्संग कराने पहुँचे हैं। देखो भगवान का कैसा संकल्प है? राजा परीक्षित के जैसा मरण तो और किसी का हुआ ही नहीं। इतने सारे ऋषि-मुनि उनको आशीर्वाद देने के लिए स्वयं ही वहाँ आ गये। मरण हो तो परीक्षित के जैसा। नहीं तो क्या मरना है? इतने सारे ऋषियों को देखकर राजा की समझ में नहीं आया कि ये सब मेरे ऊपर क्यों कृपा कर रहे हैं? मैंने तो बड़ा नीच कर्म किया है। देखो, राजा को अपने अच्छे कर्मों का स्मरण नहीं रहा, एक नीच कर्म किया उसी की याद बनी है। राजा परीक्षित उनको प्रणाम करते हैं। उनकी पूजा करते हैं। फिर कहते है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.19.13
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