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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
12.पृथु-चरित्र
ऋषियों को लगा यह तो जंगल में रहने वाली जाति है। इससे काम नहीं बनेगा। हमें तो राजा को बनाना है - ‘बाहू राजन्यः कृतः’[1] बाहु-भुजा, क्षत्रिय की निशानी है। इसलिए अब भुजाओं का मंथन किया गया। तपोबल, मन्त्रबल और शक्ति-योग के द्वारा उसमें से एक सुन्दर पुरुष और स्त्री की जोड़ी निकल पड़ी। उनके हाथों में और पैरों में भगवान विष्णु के तथा लक्ष्मी जी के चिह्न दिखाई दे रहे थे। सारे देवतागण उनके ऊपर पुष्प वृष्टि करने लगे। बोले - यह तो भगवान का अवतार है। वह सुन्दर पुरुष पृथु हैं और लक्ष्मी देवी ही वह स्त्री अर्चि हैं। विलक्षण तेज संपन्न हैं। कुबेर भगवान उनको एक सोने का सिंहासन बनाकर देते हैं। राज्याभिषेक में जिन-जिन चीजों की आवश्यकता होती है उन सब को सारे देवता गण ले आते हैं। इन्द्र देव ने किरीट, वायु देवता ने चँवर, यमराज ने दण्ड, लक्ष्मी ने सम्पत्ति, तो श्री हरि ने अपना सुदर्शन चक्र लाकर दिया। इसी प्रकार अन्य सभी देवता अपने-अपने उपहार लाकर देते हैं। और फिर पृथु का राज्याभिषेक होता है। तब वहाँ जो सूत, मागध ओर वन्दीजन थे, वे सब स्तुति करना प्रारंभ करते हैं, इसलिए कि उनका काम ही स्तुति करना होता है। लेकिन पृथु उनको रोकते हैं। कहते हैं, ”हे सूत, हे मागध आप लोग विचित्र हैं। मैं अभी प्रकट हुआ हूँ और बस अभी मेरा राज्याभिषेक हुआ है। आपने न तो मेरे कर्म देखे हैं, न जीवन। मेरा स्वभाव-व्यवहार कुछ भी नहीं देखा और मेरी प्रशंसा करनी शुरू कर दी। इस प्रकार की प्रशंसा सुनकर तो बालक ही खुश हो सकते हैं।“ ऐसा कहकर पृथु ने उन्हें रोक दिया। कर्मभिः कथमात्मानं गापयिष्याम बालवत्।।[2] अब वन्दीजन (गायक लोग) इधर-उधर देखने लगे। बोले, क्या करें? हमारा काम ही प्रशंसा करने का, स्तुति करने का है। फिर वे सब ऋषियों की ओर देखने लगे कि अब हम क्या करें? तो ऋषियों ने कहा - स्तुति करने का एक और भी ढंग होता है। तुम लोग ऐसे कहो - ‘आप ऐसे होंगे’। फिर राजा पृथु से कहते हैं - ‘आप ऐसे हैं’ इसके लिए आपका आक्षेप है। लेकिन ‘आप चक्रवर्ती सम्राट होंगे, आप लोगों की रक्षा करेंगे, आप सब प्रकार की धन-समृद्धि लायेंगे’, इस प्रकार की स्तुति के लिये आप इन्हें मना नहीं कर सकते। बस, इस प्रकार उन वन्दीजनों ने पुनः स्तुति करना प्रारंभ कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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