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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
21.हंसोपाख्यान
भगवन! विचार करके देखने पर लगता है मात्र मन ही विषयों में चला गया हो ऐसी बात नहीं है। विषय भी मन में समा गये हैं। मन गुणों में यानी विषयों में फँसा हुआ है और गुण मन में आ गये हैं। ऐसी स्थिति में जो साधकगण संसार-सागर को पार कर के मुक्त होना चाहते हैं, वे अपने मन को विषयों से किस प्रकार अलग करें? जैसे, कोई वस्तु बक्से में हो तो उसे बक्से से निकाल सकते हैं, पंक्षी पिंजड़े में हो तो उसे पिंजड़े से निकाल सकते हैं, परन्तु क्या लहर को पानी से निकाल सकते हैं? लहर में पानी है और पानी में लहर है। ऐसे में किसको किससे निकालें? ऐसा प्रश्न जब सनत्कुमारों ने अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा, तो ब्रह्मा जी उसका उत्तर नहीं दे पाए। क्यों? इसलिए कि उस समय वे सृष्टि निर्माण कार्य में व्यस्त थे। ‘नाभ्यपद्यत कर्मधीः’[1]। कर्म में संलग्न बुद्धि को तत्त्व ज्ञान की बातें न तो सूझतीं हैं, न समझ में आती हैं और न ही तब उनमें रस आता है। जैसे, माँ यदि खाना बनाने में व्यस्त हो और उसी समय बच्चा आकर यदि कोई साधारण-सा प्रश्न पूछ ले, तो भी उस समय माँ को उसका उत्तर नहीं सूझता। तो यहाँ ब्रह्मा जी भी कहते हैं, ”पता नहीं।“ उस समय उन्हें अपने मानस पुत्रों का (सनत्कुमारों का) प्रश्न समझ में नही आ रहा था, ध्यान लगाने पर भी उन्हें उसका उत्तर सूझ नहीं रहा था। अतः उन्होंने भगवान का चिन्तन किया। भगवान श्री कृष्ण उद्धव जी से कहते हैं, ”तब मैं ही हंस बनकर वहाँ पहुँच गया।“ तो भगवान हंस के रूप लेकर वहाँ पहुँचे और सनत्कुमारों को ज्ञान का उपदेश किया। इसीलिए यह प्रसंग हंसगीता के नाम से प्रसिद्ध है। अब देखो, भगवान हंस बनकर क्यों आये? हंस किसे कहते हैं? अहं + सः = हंसः। ‘हंस’ शब्द में ‘अ’ का लोप हो गया है। हंस की विशेषता यह होती है कि वह नीर-क्षीर का विवेक करने में समर्थ होता है। दूध और पानी को अलग करना बहुत कठिन होता है, परन्तु हंस इस कार्य को कर लेता है। तात्पर्य यह है कि विवेकी पुरुष ही एकत्व का ज्ञान प्राप्त करके इस सत्य को समझता है कि ‘सः’ - ‘वह’ ‘मैं’ (अह) ही हूँ। ‘सोऽहं - हंसः’। प्रकृत प्रसंग में प्रश्न यह था कि मन में गुण (या विषय) और गुणों में मन, इस प्रकार ये दोनों एक दूसरे में प्रविष्ट हो गये हैं। तो ऐसे में मन को विषयों से यानी गुणों से पृथक कैसे किया जाए? तो इसके लिए यानी पृथक्करण के लिए विवेक की आवश्यकता होती है। इसलिए भगवान विवेक रूपी हंस बनकर वहाँ पहुँचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.13.18
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