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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
21.हंसोपाख्यान
अकस्मात एक उज्ज्वल श्वेत वर्ण के हंस को वहाँ प्रकट हुआ देखकर ब्रह्मा जी चकित रह गये। वे सोचने लगे कि इस पक्षी को मैंने तो बनाया नहीं। यह मेरी सृष्टि का प्राणी नहीं है। तो फिर यह कौन है? तब ब्रह्माजी को आगे कर के सनकादि चारों कुमार हंस रूपी भगवान के पास गए और उनकी चरण वन्दना कर के उनसे पूछा कि आप कौन हैं? सनकादि तत्त्व जिज्ञासु थे, अतः भगवान ने उनसे कहा कि यह प्रश्न व्यर्थ है। आत्मा एक ही है। वह सब का स्वरूप है। और यह शरीर तो पाञ्चभौतिक है। अतः वह भी सबका एक जैसा ही है। ऐसी बात सुनकर ब्रह्मा जी समझ गए कि ये तो स्वयं नारायण भगवान हैं। ब्रह्मा जी कहते हैं - भगवान आप इनके (सनत्कुमारों के) प्रश्न का समाधान कीजिए, मेरी समझ में नहीं आ रहा है। तब भगवान ने संक्षेप में उत्तर दिया। बोले - मन और विषय एक दूसरे में प्रविष्ट हैं और तुम मन को विषयों से अलग करना चाहते हो। ये बडी विचित्र बात है। पहले यह समझ लो कि मन और विषय ये दोनों पृथक-पृथक नहीं है। एक ही हैं। ये दोनों ही मायिक हैं, माया की वृत्तियाँ हैं, आभास हैं, आत्मा पर आरोपित हैं। तुमने इन दोनों को सत्य मान लिया है, दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार कर लिया है। जबकि आत्मा में न गुण है न मन है। सच तो यह है कि जो सत्य है, आत्म तत्त्व है वह इन दोनों से परे है। जब तुम्हारा ध्यान उसकी ओर जाएगा यानी जब तुम आत्म तत्त्व का चिन्तन करोगे, तब इन दोनों (विषय और मन) से मुक्त हो जाओगे। त्रिगुण ही एक ओर मन और दूसरी और विषय बनकर भास रहे हैं। वह कैसे? जैसे, केई बच्चा जब अंगूठा चूसता है, तो उसी का मुख भोक्ता बना हुआ होता है और स्वयं उसी का अंगूठा भोग्य यानी भोग विषय बना रहता है। अब ध्यान दें तो वास्तव में यहाँ पर भोक्ता और भोग का विषय दोनों दो नहीं हैं। मुख और अंगूठा ये दोनों ही उसी बच्चे की देह के अंग हैं। इतना ही नहीं, स्वयं वह देह भी शुद्ध अहं - आत्म तत्त्व पर आरोपित है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई मन को विषयों से अलग करना चाहे, तो वह कभी सम्भव नहीं हो सकता। तथापि, मन क्या है, यह विचार करने पर मन बचता ही नहीं। तब केवल तुम्हारा स्वरूप ही रह जायेगा। यह भगवान का हंसावतार था। इस प्रसंग को ‘हंस गीता’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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