विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.ध्रुव जी को ध्रुव लोक की प्राप्ति
देखो इनको उस बात का कितना दुःख है, उसे भूलते ही नहीं। तो इस प्रकार उनके मन में निरन्तर भगवान का ही चिन्तन होता जा रहा है, भले ही उन्होंने भगवद्भक्ति का, भगवत् स्मरण चिन्तन का प्रारम्भ अर्थ से किया हो। इसीलिए उनको परा भक्ति वैसे ही प्राप्त हो गयी। देखो, पहले हमने ‘धर्म’ का प्रसंग देखा था। और अब यह ‘अर्थ’ का प्रसंग भी देख लिया। कभी हमारे मन में किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा हो जाए और हम भगवान से उसे माँग लें, यह बात तो समझ में आती है। लेकिन उसके बाद हमारी स्थिति कैसी होनी चाहिए यह हमें ध्रुवजी से सीखना चाहिए। यह नहीं कि अपना काम हो गया, तो बस भगवान को भूल गये। ‘दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय’। ऐसे लोग भी होते हैं। दुःख आने पर तो भगवान को पुकारते रहते हैं, पूजा पाठ भी करते-कराते हैं। उसके बाद कभी भगवान को याद तक नहीं करते। और उस स्थिति का उनको बुरा भी नहीं लगता। देखो, भगवान के पास जाकर हम क्या चीज माँग रहे हैं यह बड़े महत्त्व की बात होती है। एक बार प्रचेताओं की यज्ञशाला में नारद जी ने वीणा बजा कर ध्रुवजी की गाथा सुनाई थी, उनकी महिमा का गान किया था। यह ध्रुव का चरित्र यहाँ समाप्त होता है। अब विदुरजी प्रश्न पूछते हैं कि नारद जी ने जिन प्रचेताओं की सभा में ध्रुवजी के यश का गान किया था, वे प्रचेता लोग कौन थे? नारदजी वहाँ कैसे पहुँचे? वहाँ उन्होंने ध्रुवजी की महिमा का गान करते हुए भगवान की किन-किन लीलाओं का वर्णन किया था वह सब आप मुझे बताइये। लेकिन मैत्रेयजी विदुरजी के इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देते। पूर्व प्रसंग को ही आगे बढ़ाते हैं। क्योंकि वंश के क्रम में प्रचेताओं की कथा बाद में आती है। वे बाद में वहाँ तक पहुँचेंगे और वर्णन भी करेंगे। पहले ध्रुव के वंश का वर्णन करते हैं। प्रचेताओं का वर्णन भी उसी में आगे आने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज