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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
5.भगवान शंकर का विषपान
ऐसे कार्य में यदि अपने प्राणों का भी त्याग करना पड़े, तो भी कोई बात नहीं, कर देना चाहिए। सती जी उनके स्वभाव को तथा प्रभाव को जानती हैं। उनका स्वभाव कैसा है? उन्हें ‘करुणावतार’ कहा गया है, भगवान शिव बड़े ही करुणाशील हैं। और प्रभाव? प्रभाव की तो बात ही क्या करें। उनको कभी कुछ हो ही नहीं सकता। इसलिए बोले पी लो। भगवान ने दोनों हाथों से पूरा-का-पूरा जहर लेकर पी लिया और पीकर उसे अपने कण्ठ में रख लिया। वह जहर भी कुछ कम नहीं था। उसने अपना प्रभाव शिवजी के ऊपर भी दिखा ही दिया। उनके कण्ठ को नीला कर दिया।
वह नीला रंग उनके लिये आभूषण बन गया। देखो, वैसे गौर वर्ण हो और यदि कहीं पर लाल-पीला दाग हो जाये तो वह कुरुपता हो जाती है। भगवान के लिये वह दूषण नहीं, भूषण हो गया। बात ऐसी है कि कहीं पर आग लग जाए और कोई उसमें जल रहा हो तब यदि कोई आदमी साहस करके उसमें घुसकर उसे बाहर निकाल लाए और इस कार्य में उसका कोई अंग जल जाता है तो वह जला हुआ अंग भी उसके लिए भूषण बन जाता है। युद्ध के मैदान में किसी योद्धा का हाथ या पाँव कट जाये, तो वह कटा हुआ अंग भी उसके लिए भूषण बन जाता है, इसलिए कि उसने दूसरों के लिये कुछ त्याग किया। तो ये नीलकण्ठ भगवान हैं, भगवान के सभी नामों में नीलकण्ठ नाम बहुत अच्छा है क्योंकि उससे साधु स्वभाव, परोपकारी स्वभाव प्रकट होता है। इसीलिये कहते हैं -
देखो, कहीं-कहीं ऐसा भी वर्णन आता है कि भगवान शिव जहर पी रहे थे तो सती जी ने उसे गले में ही रोक दिया कि कहीं जहर अन्दर न चला जाए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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