गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 61
नरेश्वर ! मनुष्यों में वे लोग निश्चय ही सौभाग्यशाली और कृतार्थ हैं, जो कलियुग में श्रीहरि के नामों का स्मरण करते और कराते हैं। ‘कृष्’ शब्द ‘सर्व’ का वाचक है और ‘ण’ कार ‘आत्मा’ का। इसलिये जो सर्वात्मा परब्रह्मा है, वही ‘कृष्ण’ कहा गया है। परब्रह्म स्वरूप, वेदों का सारतत्व तथा परात्पर वस्तु ‘कृष्ण’- ये दो अक्षर ही सम्यक् रूप से जपने योग्य हैं। इससे बढ़कर दूसरा कोई तत्व नहीं है, नहीं है। कामसक्त मनुष्य तभी तक गर्भवास की यन्त्रणा झेलता है, तभी तक यमयातना भोगता है तथा गृहस्थ मनुष्य तभी तक भोगार्थी रहता है, जब तक वह श्रीकृष्ण की सेवा नहीं करता है। विषय, भोगोपकरण और बन्धु-बान्धव (ये सभी इस भूतल पर विनाशशील हैं, यह बात सत्य है,) तथापि यदि इन्हें स्वयं छोड़ दिया जाये तो ये सुखदायक होते हैं; परन्तु यदि दूसरों ने इन्हें छुड़वा दिया तो इनका वियोग दु:ख देने वाला होता है। यदि दैववश महापुरुषों की निन्दा सुन लेने पर विज्ञ पुरुष भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण कर लेता है तो वह सब पापों से मुक्त हो जाता है; अन्यथा रौरव नरक में पड़ता है। देवता काष्ठ, पत्थर या सोने की प्रतिमा में नहीं हुआ करता है; जहाँ भी मनुष्य का भगवद्भाव हो जाय, वहीं श्रीहरि विद्यमान हैं। इसलिये मनुष्य भाव ही करे या करावे। जिसने एक बार भी ‘कृष्ण’- इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया, उसने मोक्ष तक पहुँचने के लिये कमर कस ली। रोगी होना, सत्पुरुषों से वैर बांधना, दूसरों को ताप देना, ब्राह्मणों और वेद की निन्दा करना, अत्यन्त क्रोधी होना और कटुवचन बोलना- ये सब नरकगामी मनुष्य के लक्षण हैं। जो इस जीव-जगत् में स्वर्गलोक से लौटकर आये हैं, उनमें ये चार चिन्ह सदा रहते हैं-
1- दान का प्रसंग, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृते तु लिप्यते देशो त्रेतायां ग्राम एव च। द्वापरे च कुलं प्रोक्तं कलौ कर्त्तैव लिप्यते ।।
ध्यायन् कृते यजन् यज्ञेस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्। यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम् ।।
कृते यद्दशभिर्वषैस्त्रेतायां हायनेन च। द्वापरे चैकमासेन ह्यहोरात्रेण तत्कलौ ।।
घोरे कलियुगे प्राप्ते सर्वधर्मविर्जिते। वासुदेवपरा मर्त्यास्ते कृतार्था न संशय: ।।
ते सभाग्या मनुष्येतषु कृतार्था नृप निश्चितम्। स्मरन्ति स्मारयन्ते ये हरेर्नामानि वै कलौ ।।
कृषिश्च सर्ववचनो णकारश्चात्मवाचक:। सर्वात्मा च परं ब्रह्म तेन कृष्ण: प्रकीर्तित: ।।
संजप्य ब्रह्म परमं वेदसारं परात्परम्। परं नास्तीति नास्तीति ‘कृष्ण’ इत्यक्षरद्वयम् ।।
तावद्गर्भे वसेत् कामी तावती यमयातना। तावद्गृही च भोगार्थी यावत्कृष्णं न सेवते ।।
नश्वरो विषय: सत्यं भोगश्च बन्धवो भुवि। स्वयं त्यक्ता: सुखायैव दु:खाय त्याजिता: परै ।।
श्रुत्वा दैवान्महन्निन्दां श्रीकृष्णस्मरणाद् बुध:। मुच्यते सर्वपापेभ्यो नान्यथा रौरवं व्रजते् ।।
न काष्ठे विद्यते देवो न शिलायां न काञ्चने। यत्र भावस्तत्र हरिस्तस्माद्भावं हि कारयेत् ।।
सकृदुच्चरितं चेन ‘कृष्ण’ इत्यक्षरद्वयम। बद्ध: परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति ।।
सरोगता साधुजनेषु वैरं परोपतापो द्विजवेदनिन्दा। अत्यन्तकोप: कटुका च वाणी नरस्य चिह्नं नरके गतस्य ।।
स्वर्गागतानमिह जीवलोके चत्वारि चिह्नानि सदा वसन्ति। दानप्रसंगो मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणपूजनं च ।।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |