गर्ग संहिता
गिरिराज खण्ड : अध्याय 1
श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पूजन का प्रस्ताव और उसकी विधि का वर्णन राजा बहुलाश्वर ने पूछा -देवर्षे ! जैसे बालक खेल-ही-खेल में गोबर छत्ते को उखाड़कर हाथ में ले लेता है, उसी प्रकार भगवान ने एक ही हाथ से महान पर्वत गोवर्धन को लीलापूर्वक उठाकर छात्र की भाँति धारण कर लिया था- ऐसी बात सुनी जाती है। सो यह प्रसंग कैसे आया ? मुनिसत्तम ! इन परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र के उसी दिव्य अद्भुत चरित्र का आप वर्णन कीजिये। श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! जैसे खेती करने वाले किसान राजा को वार्षिक कर देते हैं, उसी प्रकार समस्त गोप प्रतिवर्ष शरद्ऋतु में देवराज इन्द्र के लिये बलि (पूजा और भोग) अर्पित करते थे। एक समय हरि ने महेन्द्रयाग के लिये सामग्री का संचय होता देख गोपसभा में नन्दजी से प्रश्न किया। उनके उस प्रश्न को अन्यान्य गोप भी सुन रहे थे। श्री भगवान बोले - यह जो इन्द्र की पूजा की जाती है, इसका क्या फल है ? विद्वान लोग इसका कोई लौकिक फल बताते हैं या पारलौकिक ? श्रीनन्द ने कहा- श्यामसुन्दर ! देवराज इन्द्र का यह पूजन भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला परम उत्तम साधन है। भूतल पर इसके बिना मनुष्य कहीं और कभी सुखी नहीं हो सकता। श्री भगवान बोले- पिताजी ! इन्द्र आदि देवता अपने पूर्वकृत पुण्यकर्मों के प्रभाव से ही सब ओर स्वर्ग का सुख भोगते हैं। भोग द्वारा शुभ कर्म का क्षय हो जाने पर उन्हें भी मर्त्यलोक में आना पड़ता है। अत: उनकी सेवा को आप मोक्ष का साधन मत मानिये। जिसकी परमेष्ठी ब्रह्मा को भी यह प्राप्त होता है, फिर उनके द्वारा पृथ्वी पर उत्पन्न किये गये प्राणियों की तो बात ही क्या है, उस काल को ही श्रेष्ठ विद्वान सबसे उत्कृष्ट अनन्त तथा सब प्रकार से बलिष्ठ मानते हैं। इसलिये उस काल का ही आश्रय लेकर मनुष्य को सत्कर्मों द्वारा सुरेश्वर यज्ञपति परमात्मा श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अपने सम्पूर्ण सत्कर्मों के फल का मन से परित्याग करके जो श्री हरि का भजन करता है, वही परम मोक्ष को प्राप्त होता है, दूसरे किसी प्रकार से उसको मोक्ष नहीं मिलता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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