गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 52
श्यामकर्ण अश्व का कौन्तलपुर में जाना और भक्तराज चंद्रहास का बहुत सी भेंट सामग्री के साथ अश्व को अनिरुद्ध की सेवा में अर्पित करना और वहाँ से उन सबका प्रस्थान श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! वहाँ आए हुए घोड़े को देखकर व्रजचंद्र श्रीकृष्ण के दास राजा चंद्रहास ने उसे तत्काल पकड़ लिया और प्रसन्नतापूर्वक उसके भाल पत्र को पढ़ा। नरेश्वर ! उस पत्र को पढ़कर उस महाभगवद्भक्त नरेश ने कहा- अहो ! बड़े सौभाग्य की बात है कि मैं आज भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र को अपने नेत्रों से देखूंगा। पता नहीं, पूर्वकाल में मेरे द्वारा कौन सा ऐसा पुण्य बन गया है, जिससे मुझे श्रीकृष्ण तुल्य यदुकुल तिलक अनिरुद्ध के दर्शन का अवसर मिल रहा है। मैंने आज तक माया से मानव शरीर धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं किया है। इसलिए मैं प्रद्युम्न कुमार के साथ द्वारका जाऊँगा और वहाँ श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न तथा उन महाराज उग्रसेन का भी दर्शन करूँगा, जो भगवान श्रीकृष्ण से भी पूजित हैं । ऐसा कहकर राजा चंद्रहास गंध, पुष्प, अक्षत आदि उपचार, दिव्य वस्त्र, दिव्य रत्न और उस घोड़े को भी साथ लेकर माला–तिलक से सुशोभित समस्त पुरजनों सहित अनिरुद्ध का दर्शन करने के लिए नगर से बाहर निकला। गीत और बाजों की मंगलमयी ध्वनि के साथ राजा पैदल ही गया । नरेश्वर ! नागरिकों सहित राजा को आया देख अनिरुद्ध को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मंत्री उद्धव से पूछने लगे । अनिरुद्ध ने कहा– महामंत्रिन ! यह कौन राजा है, जो समस्त पुरवासियों के साथ हमसे मिलने के लिए आया है ? आप इसका वृत्तांत हमें बतावें । उद्धव बोले– प्रद्युम्न कुमार ! यह केरल के राजा का पुत्र चंद्रहास नामक नरेश है। इसके माता–पिता बचपन में ही परलोकवासी हो गए, अत: कुलिन्द ने इसका पालन किया है। यह बाल्यावस्था से ही भगवान श्रीकृष्ण का भक्त है और उन्होंने ही इसकी रक्षा की है। दुष्टबुद्धि वाले मंत्री की पुत्री के साथ इसने विवाह किया है। कुंतल देश के राजा इसे अपना राज्य देकर वन में चले गए थे। उस राजा का वृत्तांत मैंने द्वारका में श्रीकृष्ण के ही मुख से सुना था। उसे दर्शन देने के लिए भगवान श्रीकृष्ण स्वयं यहाँ पधारेंगे । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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