गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 23
कंस और शंखचूड़ में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तांत; श्रीकृष्ण द्वारा शंखचूड़ का वध श्री नारद जी कहते हैं-राजन ! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण व्रजांगनाओं के साथ लोहजंघ-वन में गये, जो वसंत की माधवी तथा अन्यान्य लता-वल्लरियों से व्याप्त था। उस वन के सुगन्ध बिखरने वाले सुन्दर फूलों के हारों से श्री हरि ने वहाँ समस्त गोपियों की वेणियाँ अलंकृत की। भ्रमरों की गुंजार से निनादित और सुगन्धित वायु से वासित यमुना तट पर अपनी प्रेयसीयों के साथ श्याम सुन्दर विचरने लगे। विचरते-विचरते रासेश्वर श्रीकृष्ण उस महापुण्य वन में जा पहुँचे, जो करील, पीलू तथा श्याम तमाल और ताल आदि सघन वृक्षों से व्याप्त था। वहाँ रासेश्वरी श्रीराधा और गोपांगनाओं के साथ उनके मुख से अपना यशोगान सुनते हुए श्रीहरि ने रास आरम्भ किया। उस समय वे यश गाती हुई अप्सराओं से घिरे हुए देवराज इन्द्र के समान सुशोभित हो रहे थे । राजन ! वहाँ एक विचित्र घटना हुई, उसे तुम मेरे मुख से सुनो। शंखचूड़ नाम से प्रसिद्ध एक बलवान यक्ष था, जो कुबेर का सेवक था। इस भूतल-पर उसके समान गदायुद्ध विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं था। एक दिन मेरे मुँह से उग्रसेन कुमार कंस के उत्कट बल की बात सुनकर वह प्रचण्ड पराक्रमी यक्षराज लाख भार लोहे की बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवास स्थान से मथुरा में आया। उस मदोन्मत्त वीर ने राज सभा में पहुँच कर वहाँ सिन्हासन पर बैठे हुए कंस को प्रणाम किया और कहा- राजन ! सुना है कि तुम त्रिभुवन विजयी वीर हो; इसलिये मुझे अपने साथ गदा युद्ध का अवसर दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास जो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल तुम्हें अपना दास बना लूँगा।’ विदेहराज ! तब ‘तथास्तु’ कहकर, एक विशाल गदा हाथ में ले, कंस रंगभूमि में शंखचूड़ के साथ युद्ध करने लगा। उन दोनों में घोर गदा युद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनों के परस्पर आघात-प्रत्याघात से होने वाला चट-चट शब्द प्रलय-काल के मेघों की गर्जना और बिजली का गड़गड़ाहट के समान जान पड़ता था। उस रंग भूमि में दो मल्लों, नाटयमण्डली के दो नटों, विशाल अंग वाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहों के समान कंस और शंखचूड़ परस्पर जूझ रहे थे। राजन! एक-दूसरे को जीत लेने की इच्छा से जूझते हुए उन दोनों वीरों की गदाएँ आग की चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। कंस ने अत्यंत कोप से भरे यक्ष को मुक्के से मारा; तब शंखचूड़ ने भी कंस पर मुक्के से प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनों को सत्ताईस दिन बीत गये। दोनों में से किसी का बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरे के पराक्रम से चकित थे। तदनंतर दैत्यराज महाबली कंस ने शंखचूड़ को सहसा पकड़कर बलपूर्वक आकाश में फेंक दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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