गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 10
उग्रसेन की सभा में देवताओं का शुभागमन; अनिरूद्ध के शरीर में चन्द्रमा और ब्रह्मा का विलय तथा राजा और रानी की बातचीत श्रीगर्गजी कहते हैं- भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार का ही रहे थे कि हंस पर बैठे हुए भगवान ब्रह्मा महादेवजी के साथ द्वारकापुरी में आ पहँचे। राजन ! तदनन्तर इन्द्र, कुबेर, यम, वरूण, वायु, अग्नि, र्निऋति और चन्द्रमा- ये लोकपाल श्रीकृष्ण-दर्शन की इच्छा से वहाँ आये। फिर बारह आदित्य, वेताल, मरूद्गण, विश्वदेव, साध्यगण, गन्धर्व किंनर, विद्याधर तथा बहुत-से ऋषि-मुनि भी श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये आये। राजा उग्रसेन के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ पधारे हुए देवताओं से विधिपूर्वक मिलकर उन सबका समादर किया। जब सब देवता अपने-अपने आसन पर विराजमान हो गये, तब लाली के लिए नरदेह धारण करने वाले भगवान श्रीहरि ने उन सब की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तदनन्तर श्रीहरि के पार्श्वभाग में बैठे हुए ब्रह्माजी इन्द्र से प्रेरित हो बलराम सहित जगदीश्वर श्रीकृष्ण से बोले। ब्रह्माजी बोले- श्रीकृष्ण ! आपका पौत्र अनिरूद्ध अभी बालक है। भूमण्डल के राजाओं से श्यामकर्ण अश्व की रक्षा का कार्य बहुत कठिन है। हरे ! यह इस दुष्कर कार्य को कैसे कर सकेगा ? अत: आप इसे अश्व की रक्षा के लिए न भेजिये; इस कार्य में विघ्न बहुत हैं। गोविन्द ! आप चाहे प्रद्युम्न को भेजिये, चाहे बलरामजी को भेजिये अथवा स्वयं जाकर अश्व की रक्षा कीजिये। ब्रह्माजी की यह बात सुनकर श्रीहरि हँसते हुए-से बोले। श्रीभगवान बोले- अनिरूद्ध हठपूर्वक जा रहा है। इस विषय में वह मेरा निषेध नहीं मानता है, अत: आप स्वयं उसके पास जाकर यत्नपूर्वक उसे मना कीजिये। श्रीगर्गजी कहते हैं- श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर ब्रह्माजी चन्द्रमा को साथ लेकर प्रद्युम्नन्दन अनिरूद्ध को रोकने के लिये गये। ब्रह्मा और चन्द्रमा ज्यों-ही अनिरूद्धजी के समीप गये। त्यों-ही अनिरूद्ध के श्रीविग्रह में वे तत्काल विलीन हो गये, यह देख शिव और इन्द्र आदि सब देवता विस्मय में पड़ गये। समस्त यादवों, मुनियों और उग्रसेन आदि नरेशों को भी महान आश्चर्य हुआ। वज्रनाभ ! सब लोग तुम्हारे पिता की स्तुति करने लगे। इसीलिये मनीषी मुनि तुम्हारे पिता अनिरूद्ध को पूर्णतम परमात्मा बताते हैं। राजन ! तदनन्तर राजा उग्रसेन सभा से उठकर मन-ही-मन श्रीकृष्ण को प्रणाम करके यज्ञ-सम्बन्धी कौतुक से युक्त हो सुन्दर रत्नों से जटित अपने अन्त:पुर में गये। वह अन्त:पुर अपने वैभव से देवराज इन्द्र के भवन को लज्जित कर रहा था। वहाँ जाकर नृपश्रेष्ठ उग्रसेन ने वस्त्राभूषणों से विभूषित, दासियों से सेवित तथा श्वेत चामरों से वीजित शची के समान मनोहर मुखवाली रानी रुचिमती को देखा, जो पर्यंक पर विराजमान थीं। नरेश्वर ! अपने पति यादवराज उग्रसेन को वहाँ आया देख रानी सहसा उठकर खड़ी हो गयीं। उन्होंने यथाचित रीति से महाराज का समादर किया, तब पर्यंक पर बैठकर वृष्णिवंशियों के स्वामी राजा उग्रसेन हँसते हुए मेघ के समान गम्भीरवाणी में अपनी प्रियतमा रुचिमती से बोले- ‘प्रिये ! मैं भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से आज अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ करूँगा, जिसके प्रताप से मनुष्य मनोवांछित फल पा लेता है’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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