गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 26
नारदजी के मुख से बल्वल के निवास स्थान का पता पाकर यादवों का अनेक तीर्थों में स्नान–दान करते हुए कपिलाश्रम तक जाना और वहाँ कपिल मुनि को प्रणाम करके सागर के तट पर सेना का पड़ाव डालना श्रीगर्गजी कहते हैं– राजन् ! यज्ञ पशु के अपहृत हो जाने पर समस्त यादवगण शोक करने लगे कि हम कहाँ जाएं और इस पृथ्वी पर क्या करें ? अनिरुद्ध आदि सब लोगों को उस समय कोई उपाय नहीं सूझा। नरेश्वर ! तब श्री नारद रूपधारी भगवान वहाँ आ पहुँचे। देवर्षि नारद को आया देख यादवों सहित अनिरुद्ध ने आसन पर बैठा कर उनका पूजन किया और बड़े प्रसन्न होकर वे उन मुनिश्वर से बोले। अनिरुद्ध ने कहा- भगवन् ! वक्ताओं में श्रेष्ठ मुने ! दुरात्मा दैत्य बल्वल हमारा घोड़ा लेकर कहाँ चला गया ? यह सब मुझे बताइये। आपका दर्शन दिव्य है। आप सूर्यदेव की भाँति तीनों लोकों में विचरते हैं। त्रिभुवन के भीतर वायु के समान विचरण करने वाले आप सर्वज्ञ तथा आत्मसाक्षी हैं। इसलिए सब बात मुझसे कहिए। अनिरुद्ध का प्रश्न सुनकर नारदजी माधव प्रद्युम्न कुमार से बोले। नारदजी ने कहा– नृपेश्वर ! बल्वल ने तुम्हारे घोड़े को समुद्र के बीच में बसे हुए पाञ्चजन्य नामक उपद्वीप में ले जाकर रख दिया है। उसका मित्र या बंधु शकुनि यादवों के हाथ से मारा गया था, अत: यादवों का वध करने के लिए उसने यह कार्य किया है। वह महान असुर सुतलोक से दैत्य समूहों को बुलाकर वहाँ राज्य करता है। भगवान शिव का वरदान पाकर वह घमंड से भरा रहता है। अनिरुद्ध बोले- देवर्षे ! चंद्रमौलि भगवान शिव ने उस दैत्य को कौन सा श्रेष्ठ वर प्रदान किया है ? उसके किस कार्य से शिवजी संतुष्ट हो गए थे। तब मुनिवर नारद ने कहा– प्रद्युम्न कुमार ! मेरी बात सुनो। एक समय उस दैत्य ने कैलाश पर्वत पर एक पैर से खड़े रह कर बारह वर्षों तक अत्यंत कठोर तप किया। उस तपस्या से संतुष्ट होकर महादेव जी ने कहा– वर मांगो। उनकी बात सुन कर वह बोला– सदा शिव ! आपको मेरा नमस्कार है। कृपानिधान ! देव ! महासमर में आप मेरी रक्षा करें। नरेश्वर ! तब तथास्तु कहकर महादेवजी वहीं अंतर्धान हो गए। फिर वह दैत्य पाञ्चजन्य उपद्वीप में बलपूर्वक राज्य करने लगा। वह युद्ध के बिना स्वत: तुम्हें घोड़ा नहीं देगा। तब अनिरुद्ध कहने लगे– मुनिश्रेष्ठ ! मैं सेना सहित दुष्ट बल्वल को मार कर घोड़ा छुड़ा लूँगा। यदि यह भगवान शिव के वरदान से युद्ध करेगा तो मुझे विश्वास है कि शिवजी उस युद्ध में श्रीकृष्ण द्रोही दुष्ट की रक्षा नहीं करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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