गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 1
कृष्णातीरे कोकिलाकेलिकीरे श्री यमुना जी के तट पर, जहाँ कोकिलाएँ तथा क्रीड़ा शुक विचरते हैं, गुंजा पुंज से विलसित देवपुष्प (पारिजात) आदि के कुंज में, शंख-सदृश सुन्दर ग्रीवा से सुशोभित तथा एक-दूसरे के गले में बाँह डालकर चलने वाले प्रिया-प्रियतम श्री राधा-कृष्ण मेरे लिये मंगलमय हों। अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया। मैं अज्ञानरूपी रतौंधी से अन्धा हो रहा था; जिन्होंने ज्ञानरूपी अंजन की शलाका से मेरी आँखें खोल दी हैं, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है। श्रीनारद जी कहते हैं- राजन ! एक समय की बात है- व्रज में विविध उपद्रव होते देख नन्दराज ने अपने सहायक नन्दों, उपनन्दों, वृषभानुओं, वृषभानुवरों तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपों को बुलाकर सभा में उनसे कहा। नन्द बोले- गोपगण ! महावन में तो बहुत से उत्पात हो रहे हैं। बताइये, हम लोगों को इस समय क्या करना चाहिये। श्री नारद जी कहते हैं- यह सुनकर उन सब में विशेष मंत्र कुशल वृद्ध गोप सन्नन्द ने बलराम और श्रीकृष्ण को गोद में लेकर नन्द राज से कहा। सन्नन्द बोले- मेरे विचार से तो हमें अपने समस्त परिकरों के साथ यहाँ से उठ चलना चाहिये और किसी दूसरे ऐसे स्थान में जाकर डेरा डालना चाहिये, जहाँ उत्पात की सम्भावना न हो। तुम्हारा बालक श्रीकृष्ण हम सबको प्राणों के समान प्रिय है, व्रजवासियों का जीवन है, व्रज का धन और गोपकुल का दीपक है और अपनी बाल लीला से सबके मन को मोह लेने वाला है। हाय! कितने खेद की बात है कि इस बालक पर पूतना, शकट और तृणावर्त का आक्रमण हुआ, फिर इसके ऊपर वृक्ष गिर पड़े; इन सब संकटों से यह किसी प्रकार बचा है, इससे बढ़कर उत्पात और क्या हो सकता है। इसलिये हम लोग अपने बालकों के साथ वृन्दावन में चलें और जब उत्पात शांत हो जायँ, तब फिर यहाँ आयें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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