गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 6
कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान बल पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन राजा बहुलाश्व ने कहा- देवर्षि शिरोमणे ! यह महान बल और पराक्रम से सम्पन्न कंस पहले किस दैत्य के नाम से विख्यात था ? आप इसके पूर्वजन्मों और कर्मों का विवरण मुझे सुनाइये। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! पूर्वकाल में समुद्र मंथन अवसर पर महान असुर कालनेमि ने भगवान विष्णु के साथ युद्ध किया। उस युद्ध में भगवान उसे बलपूर्वक मार डाला। उस समय शुक्राचार्यजी ने अपनी संजीवनी विद्या के बल से उसे पुन: जीवित कर दिया। तब वह पुन: भगवान विष्णु से युद्ध करने के लिये मन ही मन उद्योग करने लगा। उस समय वह दानव मन्दराचल पर्वत के समीप तपस्या करने लगा। प्रतिदिन दूब का रस पीकर उसने देवेश्वर ब्रह्मा की अराधना की। देवताओं के कालमान से सौ वर्ष बीत जाने पर ब्रह्माजी उसके पास गये। उस समय कालनेमि के शरीर में केवलल हड्डियाँ रह गयी थीं और उस पर दीमकें चढ़ गयी थीं। ब्रह्माजी ने उससे कहा- ‘वर माँगो’। कालनेमि ने कहा- इस ब्रह्माण्डँ में जो-जो महाबली देवता स्थित हैं, उन सबके मूल भगवान विष्णु हैं। उन सम्पूर्ण देवताओं के हाथ से भी मेरी मृत्यु न हो। ब्रह्माजी ने कहा- दैत्य ! तुमने जो यह उत्कृष्ट वर माँगा है, वह तो अत्यन्त दुर्लभ है; तथापि किसी दूसरे समय तुम्हें यह प्राप्त हो सकता है। मेरी वाणी कभी झूठ नहीं हो सकती। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! फिर वही कालनेमि नामक असुर पृथ्वी पर उग्रसेन की स्त्री (पद्मावति) के गर्भ से उत्पन्न हुआ। कुमारावस्था में ही वह बड़े-बड़े पहलवानों के साथ कुश्ती लड़ा करता था। (एक समय की बात है) मगधराज जरासंध दिग्विजय के लिये निकला। यमुना नदी के निकट इधर-उधर उसकी छावनी पड़ गयी। उसके पास ‘कुवलया पीड़’ नामका एक हाथी था, जिसमें हजार हाथियों के समान शक्ति थी। उसके गण्डस्थल से मद चू रहा था। एक दिन उसने बहुत-सी साँकलों को तोड़ डाला और शिविर से बाहर की ओर दौड़ चला। शिविरों, गृहों और पर्वतीय तटों को तोड़ता-फोड़ता हुआ वह उस रंगभूमि (अखाड़े) में जा धमका, जहाँ कंस भी कुश्ती लड़ रहा था। उसके आने पर सभी शूरवीर भाग चले। उसे आया देख कंस ने उस हाथी की सूँड़ पकड़ी और पृथ्वी पर गिरा दिया। इसके बाद कंस ने कुवलयापीड़ को पुन: दोनों हाथों से पकड़कर घुमाया और जरासन्ध की सेना में, जो वहाँ से बहुत दूर थी, फेंक दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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