गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 17
मगध देश पर यादवों की विजय तथा मगधराज जरासंध की पराजय जरासंध बोला- समस्त यादव अत्यन्त तुच्छ और युद्ध से डरने वाले कायर हैं। वे ही आज पृथ्वी पर विजय पाने के लिये निकले हैं। जान पड़ता है, उनकी बुद्धि मारी गयी है। इस दुरात्मा प्रद्युम्न का पिता माधव स्वयं मेरे भय से अपनी पूरी मथुरा छोड़कर समुद्र की शरण में जा छिपा है। प्रवर्षण गिरि पर मैंने बलराम और कृष्ण को बलपूर्वक भस्म कर दिया था, किंतु ये छलपूर्वक वहाँ से भाग निकले और द्वारका में जाकर रहने लगे। अब मैं स्वयं कुशलस्थली पर चढ़ाई करुँगा और उन दोनों भाइयों को उग्रसेन सहित बांध लाऊँगा। समुद्र से घिरी हुई इस पृथ्वी को यादवों से शून्य कर दूँगा। नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर बलवान राजा जरासंध तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ गिरिव्रज नगर से बाहर निकला। मगधराज के साथ हाथियों के मुख पर गोमूत्र, सिन्दूर राशि एवं कस्तूरी द्वारा पत्र रचना की गयी थी। वे हाथी ऐरावत-कुल में उत्पन्न होने के कारण चार दांतों से सुशोभित थे और सूँड की फुफकारों से बहुसंख्यक वृक्षों को तोड़कर फेंकते चलते थे। उन गजराजों से मगधराज की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे मेघों से भगवान इन्द्र की होती है। राजन ! देवताओं के विमानों के समान आकार वाले अगणित रथ उसके साथ चल रहे थे, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे, सारण बैठे थे, चँवर डुल रहे थे और चंचल पहियों से घर्र-घर्र ध्वनि प्रकट हो रही थी। वायु के समान वेगशाली तथा विचित्र वर्ण वाले मदमत अश्व सुनहरे पट्टे और हर आदि से सुशोभित थे। उनकी शिखाओं एवं बागडोरों के ऊपरी भाग में चँवर सुशोभित थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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