गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 29
प्रद्युम्न की हिरण्मयवर्ष पर विजय; मधुमक्खियों और वानरों के आक्रमण से छुटकारा; राजा देवसख से भेंट की प्राप्ति तथा चन्द्रकान्ता नदी में स्न्नान श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! महाबाहु श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्न उत्तरकुरुवर्ष पर विजय पाकर ‘हिरण्मय’ नामक वर्ष को जीतने के लिये गये, जहाँ ‘स्त्रोत’ नाम का विशाल एवं दीप्तिमान सीमा पर्वत शोभा पाता है। वहाँ कूर्मावतारधारी साक्षात भगवान श्रीहरि विराजते हैं और अर्यमा उनकी आराधना में रहते हैं। हिरण्मय वर्ष में ‘पुष्पमाला’ नदी के तट पर ‘चित्रवन’ नाम से प्रसिद्ध एक विशाल वन है, जो फूलों और फलों के भार से लदा रहता है। कंद और मूल की तो वह स्वत: निधि ही है। मैथिलेश्वर ! वहाँ नल और नील के वंशज वानर रहते हैं, जिन्हें त्रेतायुग में भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने स्थापित किया था। सेना का कोलाहल सुनकर वे युद्ध की कामना से बाहर निकले और भौंहें टेढ़ी किये, क्रोध के वशीभूत हो, उछलते हुए प्रद्युम्न की सेना पर टूट पड़े। नरेश्वर ! वे नखों, दाँतों और पूँछों से घोड़ों, हाथियों और मनुष्यों को घायल करने लगे। रथों को अपनी पूँछों में बाँधकर वे बलपूर्वक आकाश में फेंक देते थे। कुछ वानर विजय-ध्वजनाथ के विजय रथ को और अर्जुन के कपिध्वज रथ को लागु्डल में बांधकर आकाश में उड़ गये। कपिध्वज अर्जुन की ध्वजा पर साक्षात भगवान कपीन्द्र हनुमान निवास करते थे। वे अर्जुन के सखा थे। उन्होंने कुपित हो सम्पूर्ण दिशाओं में अपनी पूंछ घुमाकर उन आक्रमणकारी वानरों को बांध-बांधकर पृथ्वी पर पटकना आरम्भ किया। तब उन्हें पहचानकर समस्त श्रीराम किंकर वानर हर्ष से भर गये। राजन् ! उन वानरों ने हाथ जोड़कर धीरे-धीरे सब ओर से आकर पवनपुत्र को प्रणाम किया। कुछ आलिंगन करने लगे, कुछ वेग से उछलने लगे और कुछ वानर उनकी पूंछ और पैरों को चूमने लगे। महावीर अंजनी कुमार ने उन्हें हृदय से लगाकर उनके शरीर पर हाथ फेरा और उन्हें आशीर्वाद देकर उनका कुशल-समाचार पूछा। नरेश्वर ! उन्हें प्रणाम करके सब वानर चित्र वन में चले गये और हनुमानजी अर्जुन के ध्वजा में अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर मीनध्वज प्रद्युम्न मकर नामक देश से होते हुए वृष्णिवंशियों के साथ बार-बार दुन्दुभि बजवाते हुए आगे बढ़े। मकरगिरि के पास उनकी दुन्दुभियों की ध्वनि सुनकर मधु भक्षण करने वाली करोड़ों मधुमक्खियाँ उड़कर आ गयीं। उन्होंने सारी सेना को डँसना आरम्भ किया। उस समय हाथी भी चीत्कार कर उठे। तब महाबाहु श्रीकृष्णकुमार ने वायव्यास्त्र का संधान किया। राजन् ! उस अस्त्र से उठी हुई वायु से प्रताडित हो वे सब मधुमक्खियाँ दसों दिशाओं में उड़ गयीं। मिथिलेश्वर ! उस देश के सभी मनुष्यों के मुख मगर-से थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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