गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 6
सुदामा माली और कुब्जा पर कृपा, धनुर्भंग तथा मथुरा की स्त्रियों पर श्रीकृष्ण के मधुर-मोहन रूप का प्रभाव श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर ग्वालबालों सहित नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलराम सुदामा नाम वाले एक माली के घर गये, जो फूलों के गजरे बनाया करता था। उन दोनों भाइयों को देखते ही माली उठकर खड़ा हो गया। उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और फूल के सिंहासन पर बिठाकर गद्गद वाणी में कहा। सुदामा बोला- देव ! यहाँ आपके शुभागमन से मेरा कुल तथा घर दोनों धन्य हो गये। मैं ऐसा समझता हूँ कि मेरी माता के कुल की सात पीढ़ियां, पिता के कुल की सात पीढ़ियां पत्नी के कुल की भी सात पीढ़ियां वैकुण्ठलोक में चली गयीं। आप दोनों परिपूर्णतम परमेश्वर हैं और भूतल का भार उतारने के लिये इस यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। मुझ दीनातिदीन के घर आये हुए आप दोनों भाइयों को नमस्कार है। आप परात्पर जगदीश्वर हैं।[1] नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर माली ने पुष्पनिर्मित सुन्दर हार और भ्रमरों की गुंजार से निनादित मकरन्द (इत्र, फुलेल आदि) निवेदन करके प्रणाम किया। बलराम सहित भगवान श्रीहरि उस पुष्प-राशि को धारण करे निवकटवर्ती गोपों को भी दिया और हँसते हुए मुख से उस माली से बोले- 'सुदामन ! मेरे चरणारविन्दों में सदा तुम्हारी गुरुतर भक्ति बनी रहे, मेरे भक्तों का संग प्राप्त हो और इसी जन्म में तुम्हें मेरे स्वरूप की प्राप्ति हो जाय।' तदनन्तर बलदेवजी ने भी इसे उसके कुल में निरन्तर बढ़ने वाली लक्ष्मी प्रदान की राजन् ! फिर वे दोनों भाई वहाँ से उठकर दूसरी गली में गये। वहाँ मार्ग में एक कमलनयनी कामिनी जा रही थी। उसके हाथों में चन्दन का अनुलेप-पात्र था। अवस्था में वह युवती थी, किंतु शरीर से कुबड़ी दिखायी देती थी। माधव ने उससे पूछा। सैरन्ध्री बोली- सुन्दर-शिरोमणे ! मैं कंस की दासी हूँ। महामते ! मेरा नाम कुब्जा है। मेरे हाथ का घिसा हुआ चन्दन भोजराज कंस को बहुत प्रिय है। अब तक तो मैं कंस की ही दासी रही हूँ, किंतु इस समय आपके सामने उपस्थित हूँ। हाथी के शुण्डदण्ड की भाँति जो आपके ये बलिष्ठ भुजण्ड हैं, इनमें मेरा मन लग गया है। आप दोनों भाइयों को छोड़कर दूसरा कौन ऐसा पुरुष है, जो इस चन्दनानुलेप के योग्य हो। आप दोनों भाइयों के समान सुन्दर रूप तो त्रिभुवन में कहीं नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धन्यं कुलं मे भवनं च जन्म त्वय्यागते देव कुलानि सप्त। मातु: पितु: सप्त तथा प्रियाया वैकुण्ठलोकं गतवन्ति मन्ये ।।
भूभारमाहर्तुमलं यदो: कुले जातौ युवां पूर्णतमौ परेश्वरौ। नमो युवाभ्यां मम दीनदीनं गृहं गमाभ्यां जगदीश्वरौ परौ ।।-(गर्ग0 मथुरा0 6। 3-4)
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