गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 3
अक्रूर का नन्दग्राम-गमन, मार्ग में उनकी बलराम - श्रीकृष्ण भेंट तथा उन्हीं के साथ नन्द-भवन में प्रवेश, श्रीकृष्ण से बातचीत और उनका मथुरा -गमन के लिये निश्चय, मथुरा-यात्रा की चर्चा सब ओर फैल जाने पर गोपियों का विरह की आशंका से उद्विग्न हो उठना श्रीनारदजी कहते हैं– मिथिलेश्वर ! अक्रूरजी रथ पर आरूढ़ हो राजा कंस का कार्य करने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ नन्दगाँव को गये। पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के प्रति पराभक्ति थी। परम बुद्धिमान अक्रूर यात्रा करते हुए मार्ग में अपनी बुद्धि से इस प्रकार विचार करने लगे। अक्रूर बोले– मैंने भारतवर्ष में कौन-सा पुण्य किया, निस्स्वार्थभाव से कौन-सा दान दिया, कौन-सा उत्तम यज्ञ, तीर्थयात्रा अथवा ब्राह्मणों की शुभ सेवा की है, जिससे आज मैं भगवान परमेश्वर श्रीहरि दर्शन करूँगा ? मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा उत्तम तप किया और भक्तिभाव से कब किस संत पुरुष का सेवन किया था, जिससे आज मुझे अपने सामने भगवान श्रीकृष्ण का दर्लभ दर्शन होगा। भगवान सुरेश्वर श्रीकृष्ण जिनके नेत्रों के गोचर होते हैं, भूतल पर उन्हीं का जन्म सफल है। आज उन भगवान का दुर्लभ दर्शन करके मैं सर्वतोभावेन कृतार्थ हो जाउँगा। नारदजी कहते हैं– इस प्रकार श्रीकृष्ण का चिन्तन और उत्तम शकुन का दर्शन करते हुए गान्दिनी-नन्दन अक्रूर संध्याकाल में रथ पर बैठे-बैठे नन्दगोकुल में जा पहुँचे। यव और अंकुश आदि से युक्त श्रीकृष्ण चरणारविन्दों के चिन्ह तथा उनकी ललाई से युक्त धूलिकण उन्हें पृथ्वी पर दिखायी दिये। उनके दर्शन की उत्कण्ठा एवं भक्तिभाव के आनन्दन से विह्वल हो अक्रूरजी रथ से कूद पड़े और उन धूलकणों में लोटते हुए नेत्रों से आँसू बहाने लगे। मिथिलेश्वर ! जिनके हृदय में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति प्रकट हो जाती है, उनके लिये ब्रह्मलोक पर्यन्त जगत के सारे सुख तिनके के समान तुच्छ हो जाते हैं । तदनन्तर रथ पर आरूढ़ हो अक्रूर क्षण भर में नन्दगाँव जा पहुँचे। उन्होंने गोष्ठों में पहुँचकर देखा– बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण उधर ही आ रहे हैं। वे दोनों पुराण पुरुष श्यामल-गोरवर्ण परेश्वर प्रफुल्ल कमल के समान नेत्र वाले थे। रास्ते में बलराम श्रीकृष्ण ऐसे जान पड़ते थे, मानो इन्द्रनील और हीरकमणि के दो पर्वत एक दूसरे के सम्पर्क में आ गये हों। उन दोनों के मुकुट बालसूर्य के समान और वस्त्र विद्युत के सदृश थे। उनकी अंगकान्ति वर्षाकाल के मेघ की भाँति श्याम तथा शरद ऋतु के बादल की भाँति गौर थी। उन दोनों को देखकर अक्रूर तुरंत ही रथ से नीचे उतर गये और भक्तिभाव से सम्पन्न हो उन दोनों के चरणों में गिर पड़े। उनका मुख नेत्रों से झरते हुए आँसूओं की धारा से व्याप्त तथा शरीर रोमांचित था। उन्हे देख परमेश्वर श्रीहरि दोनों हाथों से उठा लिया और वे माधव दया से द्रवित हो भक्त को हृदय से लगाकर अश्रुओं की वर्षा करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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