गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 51
यादवों का द्वैतवन में राजा युधिष्ठिर से मिल कर घोड़े के पीछे–पीछे अन्यान्य देशों में जाना तथा अश्व का कौन्तलपुर में प्रवेश श्रीगर्गजी कहते हैं– नृपेश्वर ! तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण यादवों की रक्षा करके सबसे मिलजुल कर रथ के द्वारा कुशस्थलीपुरी को चल दिए। उनके चले जाने पर अनिरुद्ध ने अश्व का यत्नपूर्वक पूजन किया और विजय यात्रा के लिए पुन: उसे बंधन मुक्त कर दिया। छूटने पर वह घोड़ा अनेकानेक देशों को देखता हुआ तीव्र गति से आगे बढ़ा। राजेंद्र ! उसके पीछे वृष्णिवंशी यादव भी वेगपूर्वक चले। दुर्योधन की पराजय सुनकर दूसरे–दूसरे भूपाल महाबली श्रीकृष्ण के भय से अपने राज्य में आने पर भी उस घोड़े को पकड़ न सके । तदनंतर यज्ञ का वह घोड़ा इधर–उधर देखता–सुनता हुआ द्वैत वन में जा पहुँचा, जहाँ राजा युधिष्ठिर भाइयों और पत्नी के साथ वनवास करते थे। उस द्वैतवन में भीमसेन प्रतिदिन हाथियों के समुदायों के साथ उसी तरह क्रीड़ा करते थे, जैसे बालक खिलौनों से खेलता है। उन्होंने वहाँ उस घोड़े को देखा। वह वन बड़ा ही विशाल और घना था। बरगद, पीपल, बेल, खजूर, कटहल, मौलसिरी, छितवन, तिंदुक, तिलक, साल, तमाल, बेर, लोध, पाटल, बबूल, सेमर, बांस और पलाश आदि वृक्षों से भरा था। उस दुर्जन–निर्जन वन में, जहाँ सूअर, हिरण, व्याघ्र, भेड़िए और सर्प रहते थे, जिसमें गीध और चील आदि पक्षी रहा करते थे, बांबी से आधा शरीर निकाले हुए अगणित सर्प भरे थे, सियार, वानर, भैंसे, नीलगाय आदि जिसे वन की शोभा बढ़ाते थे तथा राजन् ! गवय, हाथी, भालू, बलाव और वनमानुष आदि के रहने से जो बड़ा भयंकर प्रतीत होता था, उस वन में उस घोड़े को आया हुआ देख भयानक पराक्रमी भीमसेन ने उसका केश पकड़ लिया। नरेश्वर ! भाल पत्र सहित उस अश्व को अनायास ही काबू में करके किसने इसे छोड़ा है, ऐसी बात कहते हुए वे उसे लेकर धीरे-धीरे आश्रम की ओर चले । राजन् ! उसी समय उस वन में यज्ञ संबंधी अश्व बड़े कष्ट से अवलोकन करते अनिरुद्ध आदि समस्त यादव वहाँ आ पहुँचे। घोड़े को पकड़ा गया देख वे आपस में कहने लगे- अहो ! यह वनेचर तो भीमसेन के समान दिखाई देता है। बड़ी–बड़ी बांहें, अत्यंत पुष्ट शरीर, बहुत ऊँचा कद, लाल आंखे और महान गौरवर्ण– सब उन्हीं के समान हैं। यह कठिनाइयों को झेलने में समर्थ है। इसके सारे अंग में धूल लिपटी हुई है तथा इसने भीम की ही भाँति गदा भी ले रखी है। परस्पर ऐसी बातें करते हुए वे सब लोग फिर उस वनेचर से बोले । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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