गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 9
भानु के द्वारा रंग-पिंग का वध; प्रद्युम्न और शिशुपाल का भयंकर युद्ध तथा चेदिदेश पर प्रद्युम्न की विजय श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! यों कहकर शत्रुसूदन भानु ढाल-तलवार लेकर पैदल ही शत्रुसेना में उसी प्रकार घुस गये, भानु ने अपने खड्ग से शत्रु-योद्धाओं की भुजाएं काट डालीं। हाथी और घोड़ों भी जब सामने या आस-पास मिल जाते थे, तब वे अपनी तलवार से उनके दो टुकड़े कर डालते थे। वे उस समरागंण में शत्रुओं का छेदन करते हुए अकेले ही विचरने और शोभा पाने लगे। उनका दूसरा साथी केवल खड्ग था। जैसे कुहा से और बादलों से आच्छादित होने पर भी सूर्य देव अपने तेज से उदासित होत हैं, उसी प्रकार शत्रुओं से आवृत होने पर भी वीरवर भानु अपने विशिष्ट तेज का परिचय दे रहे थे। मिथिलेश्वर ! भानु के खड्ग से जिनके कुम्भस्थल कट गये थे, उन हाथियों के मस्तकों में से मोती रणभूमि में उसी प्रकार गिरते थे, जैसे पुण्यकर्मों के क्षीण हो जाने पर स्वर्गवासी जनों के तारे द्युलोक से भूमि पर गिर पड़ते हैं। उस समारांगण में दृष्टिमात्र से शत्रुसेना को धराशायिनी करके महाबली वीर भानु रंग और पिंग के ऊपर जा चढे़। भगवान श्रीकृष्ण के दिये हुए खड्ग से रंग और पिंग के रथों को नष्ट करके भानु ने सारथियों के सहित उनके घोड़ों के दो-दो टुकडे़ कर डाले। तब महान उद्भट वीर रंग और पिंग ने भी खड्ग लेकर भानु पर प्रहार किया। परंतु भानु की ढाल तक पहुँचते ही वे दोनों खड्ग टूक-टूक हो गये। भानु की तलवार की चोट से रंग और पिंग के मस्तक एक साथ ही युद्धभूमि में जा गिरे। यह अद्भुत सी बात हुई। विजयी वीर भानु सेनापतियों से प्रशंसित हो रंग और पिंग के मस्तक लेकर प्रद्युम्न के सामने आये। उस समय मानवीय दुन्दुभियों के साथ देव-दुन्दुभियॉ भी बज उठीं। सब ओर जय-जयकार होने लगा। देवताओं ने फूल बरसाये। रंग और पिंग के मारे जाने का समाचार शिशुपाल के रोष की सीमा न रही। वह विजयशील रथ पर आरुढ़ हो यादवों के सामने आ गया। उसके साथ मद की धारा बहने वाले, सोने के हौदे से युक्त और रत्नजटित कम्बल (कालीन या झूल) से अलंकृत बहुत-से विशालकाय गजराज चले, जिनके हिलते हुए घंटों की घनघनाहट दूर-दूर तक फैल रही थी। देवताओं के विमानों की भाँति शोभा पाने वाले रथों, वायु के तुल्य वेगशाली तुरंगमों तथा विद्याधरों के सदृश पराक्रमी वीरों के द्वारा वह पृथ्वी तल को निनादित करता हुआ चल रहा था। नरेश्वर ! शिशुपाल की सेना को आती देख धनुर्धारियों में श्रेष्ठ श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न इन्द्र के दिये हए रथ पर आरुढ़ हो सबके आगे होकर उसका सामना करने के लिये चले। उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओं और आकाश को गुँजाते हएु अपना शंक बजाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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