गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 39
शकुनि के मायामय अस्त्रों का प्रद्युम्न द्वारा निवारण तथा उनके चलाये हुए श्रीकृष्णास्त्र से युद्धस्थल में भगवान श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव नारद जी कहते हैं- महाराज् ! शकुनि ने फिर उठकर जब अपनी सेना का विनाश हुआ देख, तब उसने लाख भार के समान भारी धनुष हाथ में लिया। राजन्! उस प्रचण्ड विक्रमशाली को दण्ड पर तीखा बाण रखकर बलवान दैत्यराज शकुनि ने रणभूमि में प्रद्युम्न से कहा। शकुनि बोला- राजन् ! इस भूतल पर कर्म ही प्रधान हैं। महत् कर्म ही साक्षात गुरु तथा सामर्थ्यशाली ईश्वर है। यहाँ कर्म से ही उच्चता और नीचता प्रकट होती है तथा उस कर्म से ही विजय और पराजय होती है। जैसे सहस्त्रों गौओं के बीच में छोड़ा हुआ बछड़ा सत्पुरुषों के देखते-देखते अपनी माता को ढूंढ़ लेता है, वैसे ही जिसने भी शुभाशुभ कर्म किया है, उसके द्वारा किया हुआ कर्म सहस्त्रों मनुष्यों के होने पर भी उस कर्ता को ही प्राप्त होता है। इसके अनुसार मैं सुदृढ़ कर्म करके उसके द्वारा अपने शत्रु स्वरूप तुम को अवश्य जीत लूँगा। इसके लिये मैंने शपथ खायी है। तुम भी शीघ्र ही इसका प्रतीकार करो, जिससे इस भूमि पर पराजय न हो। प्रद्युम्न ने कहा- दैत्यराज ! यदि तुम कर्म को प्रधान मानते हो तो यह भी जान लो कि काल के बिना उसका कोई फल नहीं होता। कर्म करने पर भी उसके पाक या परिणाम में कभी-कभी विघ्न उपस्थित हो जाता है, अत: श्रेष्ठ विद्वान पुरुषों ने सदा काल या समय को ही बलिष्ठ माना है। दैत्यराज ! सुनो, कर्म के परिपाक का अवसर आने पर भी कर्ता के बिना उसका फल कदापि नहीं प्राप्त होता। इसलिये श्रेष्ठ पुरुष कर्ता को ही प्रधान मानते हैं, कर्म और काल को नहीं। कुछ लोग योग (उपाय) को ही प्रधान मानते है; क्योंकि उसके बिना भूतल पर कोई भी कर्म और उसके फल की सिद्धि नहीं हो सकती। काल, कर्म और कर्ता के रहते हुए भी योग के बिना सब व्यर्थ हो जाता है। योग, कर्म, कर्ता और काल के होते हुए भी विधि ज्ञान के बिना सब व्यर्थ हो जाता है, जैसे परिणाम के प्रकार आदि का विचार किये बिना फल का यथावत साधन नहीं होता। योग, कर्म, कर्ता, काल और विधिज्ञान के होने पर भी ब्रह्म पुरुष के बिना कुछ भी नहीं होता। इसलिये मैं उन परिपूर्णतम भगवान को नमस्कार करता हूं, जिनसे अखिल विश्व का ज्ञान होता है। शकुनि बोला- हे महाबाहु प्रद्युम्न ! तुम तो साक्षात ज्ञान के निधि हो, जो तुम्हारा दर्शन मात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। जो तुम्हारा संग पाकर प्रतिदिन तुम से वार्तालाप करते हैं, उनकी महिमा का वर्णन करने में तो चार मुख वाले ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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