गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 18
श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवी रूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा श्रीराधा को श्रीकृष्ण का दर्शन श्री नारद जी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनंतर रात व्यतीत होने पर माया से नारी का रूप धारण करने वाले श्रीहरि श्रीराधा का दु:ख शांत करने के लिये वृषभानु भवन में गये। उन्हें आया देखकर श्रीराधा उठकर बड़े हर्ष के साथ भीतर लिवा ले गयी और आसन देकर विधि विधान के साथ उनका पूजन किया। श्रीराधा बोलीं- सखी ! तुम्हारे बिना मैं रात भर बहुत दु:खी रही और तुम्हारे आ जाने से मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है, मानो कोई खोयी हुई वस्तु मिल गयी हो। जैसे कुपथ्य-सेवन से पहले तो सुख मालूम होता है, किंतु पीछे दु:ख भोगना पड़ता है, इसी तरह सत्संग से भी पहले सुख होता है और पीछे वियोग का दु:ख उठाना पड़ता है। श्रीनारद जी कहते हैं- राजन ! श्रीराधा की यह बात सुनकर गोपदेवी अनमनी हो गयीं। वे श्रीराधा से कुछ भी नहीं बोलीं। किसी दु:खिनी की भाँति चुपचाप बैठी रहीं। गोपदेवी को खिन्न जानकर श्रीराधिका ने सखियों के साथ विचार करके, स्नेहतत्पर हो, इस प्रकार कहा। श्रीराधा बोलीं- गोपदेवि ! तुम अनमनी क्यों हो गयीं ? कल्याणि ! मुझे इसका कारण बताओ। माता, पति, ननद अथवा सास ने कुपित होकर तुम्हें फटकारा तो नहीं है ? मनोहरे ! किसी सौत के दोष से या अपने पति के वियोग से अथवा अन्यत्र चित्त लग जाने से तो तुम्हारा मन खिन्न नहीं हुआ है ? क्या कारण है ? महाभागे ! रास्ता चलने की थकावट से या शरीर में कोई रोग हो जाने से तो तुम्हें खेद नहीं हुआ है ? अपने दु:ख का कारण शीघ्र बताओ। रम्भोरू ! किसी कृष्ण भक्त या ब्राह्मण को छोड़कर दूसरे जिस-किसी ने भी तुमसे कोई कुत्सित बात कह दी हो तो मैं उसकी चिकित्सा करूँगी (उसे दण्ड दूँगी)। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हाथी, घोड़े आदि वाहन, नाना प्रकार के रत्न, वस्त्र, धन और विचित्र भवन मुझसे ग्रहण करो। धन देकर शरीर की रक्षा करे, शरीर का भी उत्सर्ग करके लाज की रक्षा करें तथा मित्र के कार्य की सिद्धि के लिये तन, धन और लज्जा को भी अर्पित कर दे। धन देकर निरंतर प्राणों की रक्षा करें। जो बिना किसी कारण या कामना के निश्चल भाव से मित्रता का निर्वाह करता है, वही मनुष्य परम धन्य है। जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, उस स्वार्थ-साधन में पटु लम्पट नट को धिक्कार है। राजेन्द्र ! उनका यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गोपदेवी के रूप में आये हुए भगवान उन कीर्तिनन्दिनी श्रीराधा से हँसते हुए बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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