गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 48
शक्रसख का प्रद्युम्न को भेंट अर्पण, प्रद्युम्न का लीलावतीपुरी के स्वयंवर में सुन्दरी को प्राप्त करना तथा इलावृत वर्ष से लौटकर भारत एवं द्वारकापुरी में आना श्रीनारदजी कहते है- राजन् ! अपने नगर में गिरकर शक्रसख अत्यन्त मूर्च्छित हो गया। फिर उस मूर्च्छा से वह उठा। उठने पर भी एक क्षण तक उसे बड़ी घबराहट रही। तदनन्तर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न को परब्रह्म जानकर शक्रसख बड़ी उतावली के साथ अपनी भेंट-सामग्री लेकर यादव सेना के समीप गया। ऐरावतकुल में उत्पन्न हुए तीन सूँड़ और चार दांत वाले श्वेत रंग के एक हजार मदवर्षी हाथी, सुवर्ण गिरि पर उत्पन्न हुए दो योजन विस्तृत शरीर वाले दिग्गजों के समान उन्मत्त पर्वताकार एक करोड़ हाथी, जिनके मुख दिव्य थे और जिनकी गति भी दिव्य थी, करोड़ों की संख्या में उपस्थित किये गये। राजन् ! इन सबके साथ सोने के बने हुए उत्तम दिव्य रथ भी थे, जिनकी संख्या सौ अरब थी। दस हजार विमान भेंट के लिये लाये गये, जो दो-दो योजन विस्तार से सुशोभित थे। दस लाख कामधेनु गौएँ और एक हजार पारिजात वृक्ष प्रस्तुत किये गये। तड़ागों में परिपुष्ट हुए सीप के मोती, जो यन्त्र पर चढ़ाकर चमकाये गये थे तथा चमेली के इत्र से आर्द्र से, शिरीष कुसुमों से सज्जित तथा दूध के फेन की तरह सफेद करोड़ों शय्याएँ लायी गयीं, जिन पर सुन्दर तकिये भी रखे गये थे। विचित्र वितान (चंदोवे) और दीवारों पर लगाये जाने वाले वस्त्र करोड़ों की संख्या में भेंट किये गये। छूने में कोमल एवं चितकबरे आसन तथा विश्वकर्मा द्वारा रचित बड़े-बड़े तकिये दिये गये, जो मोतियों के गुच्छों और सुवर्ण रत्न आदि के द्वारा खचित थे। वे सब सहस्त्रों संख्या में थे। हजारों परदे, करोड़ों पालकियाँ, छत्र, चंवर और दिव्य सिंहासनों के साथ करोड़ों व्यजन, जो राजलक्ष्मी के भूषण थे, प्रस्तुत किये गये। कोटि द्रोण अमृत, सुधर्मा सभा, सर्वतो भद्रमण्डल, सहस्त्र दल कमल, हीरे, पन्ने और मोती दिये गये। कोटि भार गोमेद और नीलम दिये गये, सहस्त्रों भार सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त और वैदूर्य मणियों के थे। कोटि भार स्यमन्तक मणियों के लाये गये थे। नरेश्वर ! पद्वाराग मणि के भारों की संख्या एक अरब थी। जाम्बूनद सुवर्ण, हाटक सुवर्ण तथा सुवर्णगिरि से प्राप्त सुवर्णां के भी कोटि-कोटि भार प्रस्तुत किये गये। मैथिलेश्वर ! आठ लोकपालों के आधिपत्य की रक्षा करने वाला शक्रसख अपना राज्य तथा देवताओं की सम्पूर्ण निधियों को भेंट के लिये लेकर उद्धवजी के साथ यादव सेना के पास गया और कुशलता के लिये वह अद्भुत भेंट अर्पित करके उसने प्रद्युम्न को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। शम्बर शत्रु प्रद्युम्न ने संतुष्ट होकर उसे रत्नमाला अर्पित की और उस राज्य पर उसी को पुन: स्थापित कर दिया। राजन् ! सत्पुरुषों का ऐसा ही स्वभाव होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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