गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 8
यज्ञ के योग्य श्यामकर्ण अश्व का अवलोकन श्रीगर्गजी कहते हैं- देवर्षि नारदजी का सुस्पष्ट अक्षरों से युक्त यह वचन सुनकर उग्रसेन चकित हो गये। उन्होंने हँसते हुए-से उनसे कहा। राजा बोले- मुने ! मैं अश्वमेध यज्ञ करूंगा। आप इस यज्ञ के योग्य अश्व को मेरी अश्वशाला में जाकर देखिये। बहुत-से अश्वों के बीच में से उसको छांट लीजिये। राजा की यह बात सुनकर ‘बहुत-अच्छा’ कहकर देवर्षि नारद यज्ञ के योग्य अश्व को देखने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के साथ अश्वशाला में गये। वहाँ जाकर उन्होंने धूम्रवर्ण, श्यामवर्ण, कृष्णवर्ण और पद्मवर्ण के बहुत-से मनोहर अश्व देखे। फिर वहाँ से दूसरी अश्वशाला में गये। वहाँ दूध, जल, हल्दी, केसर तथा पलाश के फूलकी-सी कान्तिवाले बहुत-से अश्व दृष्टिगोचर हुए। कई घोड़े चितकबरे रंग के थे। कितनों के अंग स्फटितशिला के समान स्वच्छ थे। वे सभी मन के समान वेगशाली थे। कितने ही अश्व हरे और तांबे के समान वर्ण वाले थे। कुछ घोड़ों के रंग कुसुम्भ- जैसे और कुछ के तोते के पांख जैसे थे। कोई इन्द्रगोप के समान लाल थे, कोई गौरवर्ण के थे तथा कितने ही पूर्ण चन्द्रमा के समान धवल कान्ति वाले और दिव्य थे। बहुत-से अश्व सिन्दूरी रंग के थे। कितनों की कान्ति प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ती थी। कितने ही अश्व प्रात:कालिक सूर्य के समान अरूणवर्ण के थे। नरेश्वर ! ऐसे घोड़ों को देखकर नारदजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे श्रीकृष्ण सहित राजा उग्रसेन से हँसते हुए-से बोले। नारद जी ने कहा- महाराज ! आपके सभी घोड़े बड़े सुन्दर हैं। ऐसे अश्व पृथ्वी पर अन्यत्र नहीं है। स्वर्गलोक और रसातल में भी ऐसे घोड़े नहीं दिखायी देते। यह श्रीकृष्ण की कृपा है, जिससे आपकी अश्वशाला में ऐसे-ऐसे अश्व शोभा पाते हैं। परंतु इन सब मैं एक भी ऐसा अश्व नहीं दिखायी देता, जो श्यामकर्ण हो। श्रीगर्गजी कहते हैं- देवर्षि का यह वचन सुनकर राजा उग्रसेन दु:खी हो गये। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘अब मेरा यज्ञ कैसे होगा’ राजा को उदास देख भगवान मधुसूदन हँसते हुए शीघ्र ही मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले। श्रीकृष्ण ने कहा- राजन ! मेरी बात सुनिये और सारी चिन्ता छोड़कर मेरी अश्वशाला में चलकर श्यामकर्ण घोड़े को देखिये। यह सुनकर नृपश्रेष्ठ उग्रसेन श्रीकृष्ण और देवर्षि नारद के साथ उनकी अश्वशाला में गये। वहाँ जाकर उन्होंने यज्ञ के योग्य सहस्त्रों श्यामकर्ण घोड़े देखे, जिनकी पूँछ पीली, अंगकान्ति चन्द्रमा के समान उज्जवल तथा गति मन के समान तीव्र थी। उन सबके मुख तपाये हुए सुवर्ण के सामन जान पड़ते थे। ऐसे शुभ-लक्षण सम्पन्न सर्वांगसुन्दर और दिव्य अश्व देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे महान हर्ष से उल्लसित हो श्रीकृष्ण को मस्तक झुकाकर बोले। जगन्नाथ ! आज मैं यहाँं बहुत-से श्यामकर्ण घोड़े देखे। भला, आपके भक्तों के लिए इस भूतल पर कौन-सी वस्तु दुर्लभ होगी। श्रीकृष्ण ! जैसे पूर्वकाल में प्रह्लाद और ध्रुव का मनोरथ पूर्ण हुआ था, उसी प्रकार आपकी कृपा से मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। राजन ! ऐेसा सुनकर र्शांगधनुष धारण करने वाले श्रीहरि राजा से इस प्रकार बोले। श्रीकृष्ण ने कहा- नृपश्रेष्ठ ! आप मेरी आज्ञा से इन चन्द्र के समान कान्तिमान श्यामकर्ण अश्वों में से एक को लेकर यज्ञ आरम्भ कीजिये। श्रीगर्गजी कहते हैं- श्रीहरि का यह आदेश सुनकर राजा उनके बोले- ‘प्रभो ! अब मैं क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। ‘ऐसा कहकर वे श्रीकृष्ण और नारदजी के साथ राजसभा में गये। वहाँ तुम्बुरू सहित नारदजी श्रीकृष्ण से विदा ले राजा को आशीर्वाद देकर ब्रह्मलोक को चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |