गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 37
वज्रनाभ ने पूछा- ब्रह्मन ! कुनंदन के मारे जाने और बल्वल के रणभूमि में मूर्च्छित हो जाने पर करुणामय भगवान शिव ने उसकी सहायता क्यों नहीं की ! भगवान शिव वहाँ आए क्यों नहीं ? दैत्यों ने घोड़े को कैसे छोड़ा ? और यज्ञ किस तरह पूर्ण हुआ ? ये सब बातें विस्तारपूर्वक मुझे बताने की कृपा करें । सौति कहते हैं- ब्रह्मन ! वज्रनाभ का यह प्रश्न सुनकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ गर्गजी संपूर्ण कथा का स्मरण करके उन यादव शिरोमणि से बोले । श्रीगर्गजी ने कहा- राजन् ! जब बल्वल मुर्च्छित हो गया और शूरवीर कुनंदन मारा गया, तब देवर्षि नारद की प्रेरणा से भगवान शिव ने बड़ा कोप किया। नरेश्वर ! भक्तों की रक्षा करने वाले शिव क्रोध पूर्वक नंदी पर आरूढ़ हो, मस्तक पर जटाजूट के भीतर चंद्रलेखा धारण किए, सर्पों के हार और मुण्ड माला से अलंकृत हो, सारे अंग में भस्म रमाए भयंकर रूप से आए। दस बाँह, पाँच मुक और पंद्रह नेत्रों से युक्त रुद्रदेव सिंह का चर्म का वस्त्र धारण किए मद मस्त एवं भय कारक प्रतीत होते थे। उनके हाथों में त्रिशूल, पट्टिश, धनुष, बाण, कुठार, पाश, परिघ और भिन्दिपाल शोभा दे रहे थे। वे सहस्रों सूर्यों के तुल्य तेजस्वी और समस्त भूतगणों से आवृत थे। अनिरुद्ध आदि समस्त श्रेष्ठ वृष्णिवंशी वीरों का युद्धस्थल में वध करने के लिए वे बड़ी उतावली के साथ कैलास से पृथ्वी तल को कंपित करते हुए आए । नरेश्वर ! उस समय आकाश और भूतल पर बड़ा हंगामा मचा। देवता, दैत्य और मनुष्य सभी विस्मित और भयभीत हो उठे। समस्त गणों और परिवार के साथ प्रलयंकर शंकर को रोषपूर्वक आया देख यादवों को बड़ा भय हो गया। अनिरुद्ध का मुँह भय के कारण निस्तेज हो गया। समरांगण में वे दु:खी हो गए और उनका हृदय कांपने लगा। उस समय क्रोध से भरे हुए गिरीश ने हाथ में त्रिशूल लेकर समस्त यादवों से यह निष्ठुर बात कही । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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