गर्ग संहिता
बलभद्र खण्ड: अध्याय 10
श्रीबलभद्रजी की पूजा-पद्धति और पटल दुर्योधन ने कहा- भगवन् ! आप सर्वज्ञ हैं। यह बताने की कृपा कीजिये कि गोपियों के यूथ को श्रीगर्गाचार्यजी ने बलभद्र पंचाग किस प्रकार प्रदान किया था। प्राडविपाक मुनि बोले- कुरुराज ! एक बार गर्गजी यमुना स्न्नान करने के लिये गर्गाचल से चलकर व्रजपुर में पधारे। यमुनाजी की तट की ललित लताएँ पवन के प्रवाह से हिल रही थीं। पुष्पों के सौरभ से मत्त हुए भ्रमरों के समूह गुंजार कर रहे थे। इस प्रकार के यमुना तट पर निकुंज के नीचे एकान्त में श्रीगर्गाचार्य भगवान बलराम और श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे। उस समय गोपियों ने आकर उनको प्रणाम किया। उनको स्मरण हो आया कि हम पूर्वजन्म की नागेन्द्र कन्याएँ हैं। तब उन्होंने बलभद्रजी को प्राप्त करने के लिये गर्गजी सेवा का साधन पूछा। कन्याओं की इस अनुपम भक्ति को देखकर उनके उद्देश्य की सिद्धि के लिये गर्गजी ने उनको पद्धति, पटल, स्तोत्र, कवच और सहस्त्र नाम यह पंचांग साधन प्रदा किया। अब बताओ, तुम और क्या सुनना चाहते हो। दुर्योधन ने कहा- ब्रह्मन गुरुदेव ! आप भक्तवत्सल हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप कृपया बलरामजी की ‘पद्धति’ का वर्णन कीजिये, जिसे जानकर मैं सिद्धि प्राप्त कर सकूं। प्राडविपाक मुनि बोले- राजसत्तम ! जिससे महाप्रभु बलरामजी प्रसन्न हो जाते हैं, उस बलभद्र पद्धति के नियम सुनो। वे भगवान बलरामजी सहस्त्र मुखवाले हैं। समस्त भुवनों के अधीश्वर हैं। बहुत से दान और तीर्थ सेवन से उनकी प्राप्ति नहीं हो सकती। वे तो केवल ‘अनन्य-भक्ति’ से प्राप्त होते हैं। श्रीहरि के बड़े भाई उन बलरामजी की भक्ति सत्संग के द्वारा शीघ्र प्राप्त हो सकती है। जिनमें प्रेम लक्षणा भक्ति का उदय हो जाता है, वे ही सिद्ध पुरुष हैं। ब्राह्ममुहूर्त में उठते ही भगवान राम कृष्ण के नामों का उच्चारण करे, फिर गुरुदेव को और पृथ्वी को (मन से) प्रणाम करके पृथ्वी पर पैर रखे। तदनन्तर स्न्नान आचमन करके निर्जन में कुशासन पर बैठ जाय, दोनों हाथ गोद में रख ले और अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर परम देव सनातन हरि भगवान श्रीबलरामजी का ध्यान करे। उनका गौरवर्ण है। उन्होंने नीलाम्बर धारण कर रखा है। वे वनमाला से विभूषित हैं। बड़ी मनमोहन मूर्ति है। ऐसे हलधर भगवान बलरामजी को प्रसन्न करने के लिये नित्य उनका ध्यान करना चाहिये। साधक को चाहिये कि वह बाहर भीतर से पवित्र हो, मौन धारण करे और क्रोध का त्याग करके तीनों काल में संध्या वन्दन करे। मन में कोई कामना, लोभ और मोह न रहे। सत्यभाषण करे। जितेन्द्रिय होकर एक बार मात्र पायस का भोजन करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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