श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय में पहले से चौथे श्लोक तक अर्जुन ने भगवान् की और उनके उपदेश की प्रशंसा करके विश्वरूप के दर्शन कराने के लिये भगवान् से प्रार्थना की है। पाँचवे से आठवें तक भगवान् ने अपने अंदन देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि समस्त चराचर प्राणियों तथा अनेकों आश्चर्यप्रद दृश्यों सहित सम्पूर्ण जगत् को देखने की आज्ञा देकर अन्त में दिव्यदृष्टि प्रदान करने की बात कही है। नवें में संजय ने भगवान् के द्वारा अर्जुन को विश्वरूप दिखलाने की बात कहकर, दसवें से तेरहवें तक अर्जुन को कैसा रूप दिखलायी दिया- इसका वर्णन किया है। चौदहवें में उस रूप को देखकर अर्जुन के विस्मित और हर्षित होकर श्रद्धा के साथ भगवान् को प्रणाम करके बोलने की बात कही है। तदनन्तर पंद्रहवें से इकतीसवें तक अर्जुन ने विश्वरूप का स्तवन, उसके प्रभाव का वर्णन और उसमें दिखलायी देने वाले दृश्यों का वर्णन करके अन्त में भगवान् से अपना वास्तविक परिचय देने के लिये प्रार्थना की है। बत्तीसवें से चौंतीसवें तक भगवान् ने अपने को लोकों का नाश करने वाला ‘काल’ तथा भीष्म-द्रोणादि समस्त वीरों को पहले ही अपने द्वारा मारे हुए बतलाकर अर्जुन को उत्साहित करते हुए निमित्तमात्र बनकर युद्ध करने की आज्ञा दी है। इसके बाद पैंतीसवें में भगवान् के वचन सुनकर आश्चर्य और भय में निमग्न अर्जुन के बोलने का प्रकार बताकर छत्तीसवें से छियालीसवें तक भगवान् की स्तुति, उनको नमस्कार, उनसे क्षमा-याचना और दिव्य चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करने का वर्णन है। सैंतालीसवें और अड़तालीसवें में भगवान् ने अपने विश्वरूप की महिमा और उसके दर्शन की दुर्लभता बतलाकर उनचासवें में अर्जुन को आश्वासन देते हुए चतुर्भुजरूप देखने की आज्ञा दी है। पचासवें में चतुर्भुजरूप के दर्शन कराकर फिर मनुष्य रूप होने का संजय ने वर्णन किया है। इक्यावनवें में अर्जुन ने भगवान् का सौम्य मानव रूप देखकर सचेत और प्रकृतिगत होने की बात कही है। तदनन्तर बावनवें और तिरपनवें में भगवान् ने अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन को दुर्लभ बतलाकर चौवनवें में अनन्य-भक्ति के द्वारा उस रूप का दर्शन, ज्ञान और प्राप्त होना सुलभ बतलाया है। फिर पचपनवें में अनन्यभक्ति का स्वरूप और उसका फल बतलाकर अध्याय का उपसंहार किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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