श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
उत्तर- ‘अथवा’ शब्द पक्षान्तर का बोधक है। बीसवें से उनतालीसवें श्लोक तक भगवान् ने अपनी प्रधान-प्रधान विभूतियों का वर्णन करके और इकतालीसवें श्लोक में अपने तेज की अभिव्यक्ति के स्थानों को बतलाकर जो बात समझायी है, उससे भी भिन्न अपने विशेष प्रभाव की बात अब कहते हैं- यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘अथवा’ शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है? इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे पूछने पर मैंने प्रधान-प्रधान विभूतियों का वर्णन तो कर दिया, किंतु इतना ही जानना यथेष्ठ नहीं है। सार बात यह है जो मैं अब तुम्हें बतला रहा हूँ, इसको तुम अच्छी प्रकार समझ लो; फिर सब कुछ अपने-आप समझमें आ जायगा, उसके बाद तुम्हारे लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा। प्रश्न- ‘इदम्’ और कृत्स्नम्’ विशेषणों के सहित ‘जगत्’ पर किसका वाचक है? और उसको भगवान् की योगशक्ति के एक अंश से धारण किया हुआ बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यहाँ ‘इदम’ और कृत्स्नम्’ विशेषणों के सहित ‘जगत्’ पद मन, इन्द्रिय और शरीर सहित समस्त चराचर प्राणी तथा भोगसामग्री, भोगस्थान और समस्त लोकों के सहित ब्रह्माण्ड का वाचक है। यह ब्रह्माण्ड भगवान् के किसी एक अंश में उन्हीं की योगशक्ति से धारण किया हुआ है, यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने इस जगत के सम्पूर्ण विस्तार को अपनी योगशक्ति के एक अंश से धारण किया हुआ बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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