श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: ।
उत्तर- अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित शरीर में, उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में तथा समस्त भोगों में और चराचर प्राणियों के सहित समस्त जगत् में जिसकी आसक्ति का सर्वथा अभाव हो गया है, जिसके मन, बुद्धि की कहीं किंचिन्मात्र भी संलग्नता नहीं रहती है- वह ‘सर्वत्र आसक्तबुद्धिः’ है। जिसकी स्पृहा का सर्वाथा आभाव हो गया है, जिसको किसी भी सांसारिक वस्तु की किंचिन्मात्र भी परवा नहीं रही है, उसे ‘विगतस्पृहः’ कहते हैं और जिसका इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण अपने वश्व में किया हुआ है, उसे जितात्मा कहते हैं। यहाँ संन्यास योग के अधिकारी का निरूपण करने के लिये इन तीनों विशेषणों का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि जो उपर्युक्त तीनों गुणों से सम्पन्न होता है, वही मनुष्य सांख्य योग के द्वारा परमात्मा के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। प्रश्न- यहाँ ‘संन्यासेन’ पद किस साधन का वाचक है और ‘परमाम्’ विशेषण के सहित ‘नैष्कर्म्यसिद्धिम्’ पद किस सिद्धि का वाचक है तथा संन्यास के द्वारा उसे प्राप्त होना क्या है? उत्तर- ‘संन्यासेन’ पद यहाँ ज्ञानयोग का वाचक है, इसी को सांख्ययोग भी कहते हैं। इसका स्वरूप भगवान् ने इक्यावनवें से तिरपनवें श्लोक तक बतलाया है। इस साधन का फल जो कि कर्मबन्धन से सर्वथा छूटकर सच्चिदानन्दघन निर्विकार परमात्मा के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेना उसका वाचक यहाँ ‘परमाम्’ विशेषण सहित ‘नैशष्कर्म्यसिद्धि’ पद है तथा उपर्युक्त सांख्ययोग के द्वारा जो परमात्मा यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेना है, वह संन्यास के द्वारा इस सिद्धि को प्राप्त होना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज