श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
श्री भगवानुवाच
उत्तर- इनका प्रयोग करके भगवान् ने अपने रूपों की असंख्यता प्रकट की है। भगवान् के कथन का अभिप्राय यह है कि इस मेरे विश्वरूप में एक ही जगह तुम असंख्य रूपों को देखो। प्रश्न- ‘नानाविधानि’ का क्या भाव है? उत्तर- ‘नानाविधानि’ पद बहुत-से भेदों का बोधक है। इसका प्रयोग करके भगवान् ने विश्वरूप में दीखने वाले रूपों के जातिगत भेद की अनेकता प्रकट की है- अर्थात् देव, मनुष्य और तिर्यकृ आदि समस्त चराचर जीवों के नाना भेदों को अपने में देखने के लिये कहा है। प्रश्न- ‘नानावर्णाकृतीनि’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘वर्ण’ शब्द लाल, पीले, काले आदि विभिन्न रंगों का और ‘आकृति’ शब्द अंगों की बनावट का वाचक है। जिन रूपों के वर्ण और उनके अंगों की बनावट पृथक्-पृथक् अनेकों प्रकार की हों, उनको ‘नानवर्णाकृति’ कहते हैं। उन्हीं के लिये ‘नानावर्णाकृतीनि’ का प्रयोग हुआ है। अतएव इस पद का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इन रूपों के वर्ण और उनके अंगों की बनावट भी नाना प्रकार की है, यह भी तुम देखो। प्रश्न- ‘दिव्यानि’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- अलौकिक और आश्चर्यजनक वस्तु को दिव्य कहते हैं। ‘दिव्यानि’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे शरीर में दीखने वाले ये भिन्न-भिन्न प्रकार के असंख्य रूप सब-के-सब दिव्य हैं- मेरी अद्भुत योगशक्ति के द्वारा रचित होने से अलौकिक और आश्चर्यजनक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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