श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
अर्जुन उवाच
उत्तर- इन सम्बोधनों से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी और समस्त दोषों के नाश करने वाले साक्षात् परमेश्वर हैं। अतः मैं आपसे जो कुछ जानना चाहता हूँ, उसे आप भली-भाँति जानते हैं। इसलिये मेरी प्रार्थना पर ध्यान देकर आप उस विषय को मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे में उसे पूर्ण रूप से यथार्थ समझ सकूँ और मेरी सारी शंकाओं का सर्वथा नाश हो जाय। प्रश्न- मैं संन्यास के और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ, इस कथन से अर्जुन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- उपयुक्त कथन से अर्जुन ने यह भाव प्रकट किया है कि संन्यास (ज्ञानयोग) का क्या स्वरूप है, उसमें कौन-कौन से भाव और कर्म सहायक एवं कौन-कौन से बाधक हैं, उपासना-सहित सांख्ययोग का और केवल सांख्ययोग का साधन किस प्रकार किया जाता है; इसी प्रकार त्याग (फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग) का क्या स्वरूप है; केवल कर्मयोग का साधन किस प्रकार होता है, क्या करना इसके लिये उपयोगी है और क्या करना इसमें बाधक है; भक्तिमिश्रित कर्मयोग कौन-सा है; भक्तिप्रधान कर्मयोग कौन-सा है तथा लौकिक और शास्त्रीय कर्म करते हुए भक्तिमिश्रित एवं भक्तिप्रधान कर्मयोग का साधन किस प्रकार किया जाता है- इन सब बातों को भी में भली-भाँति जानना चाहता हूँ। इसके सिवा इन दोनों साधनों के में पृथक्-पृथक् लक्षण एवं स्वरूप् भी जनना चाहता हूँ। आप कृपा करके मुझे इन दोनों को इस प्रकार अलग-अलग करके समझाइये जिससे एक में दूसरे का मिश्रण न हो सके और दोनों का भेद भली-भाँति मेरी समझ में आ जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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