श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
सम्बन्ध- छठे श्लोक में यह बात कही गयी कि जिसने शरीर, इन्द्रिय और मनरूप आत्मा को जीत लिया है, वह आप ही अपना मित्र है। फिर सातवें श्लोक में उस ‘जितात्मा’ पुरुष के लिये परमात्मा को प्राप्त होना तथा आठवें और नवें श्लोकों में परमात्मा को प्राप्त पुरुष के लक्षण बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि जितात्मा पुरुष को परमात्मा की प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये, वह किस साधन से परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर सकता है, इसलिये ध्यानयोग का प्रकरण आरम्भ करते हैं- योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ।
उत्तर- इस लोक और परलोक के भोग्य-पदार्थों की जो किसी भी अवस्था में, किसी प्रकार भी, किंचिन्मात्र भी इच्छा या अपेक्षा नहीं करता, वह ‘निराशीः’ है। प्रश्न- ‘अपरिग्रहः’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- भोग-सामग्री के संग्रह का नाम परिग्रह है, जो उससे रहित हो उसे ‘अपरिग्रह’ कहते हैं। वह यदि गृहस्थ हो तो किसी भी वस्तु का ममतापूर्वक संग्रह न रखे और यदि ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी हो तो स्वरूप से भी किसी प्रकार शास्त्रप्रतिकूल संग्रह न करे। ऐसे पुरुष किसी भी आश्रम वाले हों ‘अपरिग्रह’ ही हैं। प्रश्न- यहाँ ‘योगी’ पद किसका वाचक है? उत्तर- यहाँ भगवान् ध्यानयोग में लगने के लिये कह रहे हैं; अतः ‘योगी’ ध्यानयोग के अधिकारी का वाचक है, न कि सिद्ध योगी का। प्रश्न- यहाँ ‘एकाकी’ विशेषण किसलिये दिया गया है? उत्तर- बहुत-से मनुष्यों के समूह में तो ध्यान का अभ्यास अत्यन्त कठिन है ही, एक भी दूसरे पुरुष का रहना बातचीत आदि के निमित्त से ध्यान में बाधक हो जाता है। अतएव अकेले रहकर ध्यान का अभ्यास करना चाहिये। इसीलिये ‘एकाकी’ विशेषण दिया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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