श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
सम्बन्ध- तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में जो यह बात कही थी कि गुणों का संग ही इस मनुष्य के अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्ति रूप पुनर्जन्म का कारण है; उसी के अनुसार इस अध्याय में पाँचवें से अठारहवें श्लोक तक गुणों के स्वरूप तथा गुणों के कार्य द्वारा बँधे हुए मनुष्यों की गति आदि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया। इस वर्णन से यह बात समझायी गयी कि मनुष्य को पहले तम और रजोगुण का त्याग करके सत्त्वगुण में अपनी स्थिति करनी चाहिये; और उसके बाद सत्त्वगुण का भी त्याग करके गुणातीत हो जाना चाहिये। अतएव गुणातीत होने के उपाय और गुणातीत अवस्था का फल अगले दो श्लोकों द्वारा बतलाया जाता है- नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति ।
उत्तर - इन दोनों का प्रयोग करके यह दिखलाया गया है कि मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति से विलक्षण स्थिति का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। अभिप्राय यह है कि मनुष्य स्वाभाविक तो अपने को शरीरधारी समझकर कर्ता और भोक्ता बना रहता है- वह अपने को समस्त कर्म और उनके फल से सम्बन्ध रहित, उदासीन द्रष्टा नहीं समझता; परन्तु जिस समय शास्त्र और आचार्य के उपदेश द्वारा विवेक प्राप्त करके वह अपने का द्रष्टा समझने लग जाता है, उस समय का वर्णन यहाँ किया जाता है। प्रश्न- गुणों से अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखना क्या है? उत्तर- इन्द्रिय, अन्तःकरण और प्राण आदि की श्रवण, दर्शन, खान-पान, चिन्तन-मनन, शयन, आसन और व्यवहार आदि सभी स्वाभाविक चेष्टाओं के होते समय सदा-सर्वदा अपने को निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित देखते हुए जो ऐसे समझना है कि गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है; गुणों के कार्य इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण आदि ही गुणों के कार्यरूप इन्द्रियादि के विषयों में बरत रहे हैं[1]; अतः गुण ही गुणों में बरत रहे हैं[2]; मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- यही गुणों से अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता न देखना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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