श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचदश अध्याय
अध्याय के संक्षेप- इस अध्याय के पहले और दूसरे अश्वत्थवृक्ष के रूपक से संसार का वर्णन किया गया है; तीसरे में संसार-वृक्ष के आदि, अन्त और प्रतिष्ठा की अनुपलब्धि बतलाकर दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र द्वारा उसे काटने की प्रेरणा करते हुए चौथे में परमपदस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये उसी आदिपुरुष की शरण ग्रहण करने के लिये कहा है। पाँचवें में उस परमपद को प्राप्त होने वाले पुरुषों के लक्षण बतलाकर छठे में उस परमपद को परम प्रकाशमय और अपुनरावृत्तिशील बतलाया है। तदनन्तर सातवें से ग्यारहवें तक जीव का स्वरूप, मन और इन्द्रियों के सहित उसके एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का प्रकार, शरीर में रहकर इन्द्रिय और मन की सहायता से विषयों के उपभोग करने की बात और प्रत्येक अवस्था में स्थित उस जीवात्मा को ज्ञानी ही जान सकता है, मलिन अन्तःकरण वाला पुरुष किसी प्रकार भी नहीं जान सकता- इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है। बारहवें में समस्त जगत् को प्रकाशित करने वाले सूर्य और चन्द्रमादि में स्थित तेज को भगवान् का ही तेज बतलाकर तेरहवें और चौदहवें में भगवान् को पृथ्वी में प्रवेश करके समस्त प्राणियों के धारण करने वाले, चन्द्ररूप से सबके पोषण करने वाले तथा वैश्वानर रूप से सब प्रकार के अन्न को पचाने वाले बतलाया है। और पंद्रहवें में सबके हृदय में स्थित, सबकी स्मृति आदि के कारण, समस्त वेदों द्वारा जानने योग्य, वेदों को जानने वाले और वेदान्त के कर्ता बतलाया गया है। सोलहवें में समस्त भूतों को क्षर तथा कूटस्थ आत्मा को अक्षर पुरुष बतलाकर सत्रहवें में उनसे भिन्न सर्वव्यापी, सबका धारण-पोषण करने वाले, अविनाशी परमात्मा को पुरुषोत्तम बतलाया गया है। अठारहवें में पुरुषोत्तमत्व की प्रसिद्धि के हेतु प्रतिपादन करके उन्नीसवें में भगवान् श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम समझने वाले की महिमा एवं बीसवें में उपर्युक्त गुह्यतम विषय के ज्ञान की महिमा कहकर अध्याय का उपसंहार किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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