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सप्तम अध्याय
सम्बन्ध- जब भगवान् इतने प्रेमी और दयासागर हैं कि जिस-किसी प्रकार से भी भजनेवाले को अपने स्वरूप की प्राप्ति करा ही देते हैं तो फिर सभी लोग उनको क्यों नहीं भजते, इस जिज्ञासापर कहते हैं-
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। 24 ।।
बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।। 24 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘अबुद्धयः’ पद कैसे मनुष्यों का वाचक है और भगवान् के ‘अनुत्तम अविनाशी परमभाव को न जानना’ क्या है?
उत्तर- भगवान् के गुण, प्रभाव, नाम, स्वरूप और लीला आदि में जिनका विश्वास नहीं है तथा जिनकी मोहावृत और विषयविमोहित बुद्धि तर्कजालों से समासाच्छन्न है, वे मनुष्य ‘बुद्धिहीन’ हैं। उन्हीं के लिये ‘अबुद्धयः’ का प्रयोग किया गया है, ऐसे लोगों की बुद्धि में यह बात आती ही नहीं कि समस्त जगत् भगवान् की ही द्विविध प्रकृतियों का विस्तार है और उन दोनों प्रकृतियों के परमाधार होने से भगवान् ही सबसे उत्तम हैं, उनसे उत्तम और कोई है ही नहीं। उनके अचिन्त्य और अकथनीय स्वरूप, स्वभाव, महत्त्व तथा अप्रतिमगुण मन एवं वाणी के द्वारा यथार्थरूप में समझे और कहे नहीं जा सकते। अपनी अनन्त दयालुता और शरणागतवत्सलता के कारण जगत् के प्राणियों को अपनी शरणागति का सहारा देने के लिये भगवान् अपने अजन्मा, अविनाशी और महेश्वर-स्वभाव तथा सामर्थ्य सहित ही नाना स्वरूपों में प्रकट होते हैं और अपनी अलौकिक लीलाओं से जगत् के प्राणियों को परमानन्द के महान् प्रशान्त महासागर में निमग्न कर देते हैं। भगवान् का यही नित्य, अनुत्तम और परम भाव है तथा इसको न समझना ही ‘उनके अनुत्तम अविनाशी परमभाव को नहीं समझना’ है।
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