त्रयोदश अध्याय
सम्बन्ध- बारहवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण के उपासकों की श्रेष्ठता के विषय में प्रश्न किया था, इसका उत्तर देते हुए भगवान् ने दूसरे श्लोक में संक्षेप में सगुण उपासकों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके तीसरे से पाँचवें श्लोक तक निर्गुण उपासना का स्वरूप, उसका फल और देहाभिमानियों के लिये उसके अनुष्ठान में कठिनता का निरूपण किया। तदनन्तर छठे से बीसवें श्लोक तक सगुण उपासना का महत्त्व, फल, प्रकार और भगवद्भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते-करते ही अध्याय की समाप्ति की गयी; निर्गुण का तत्त्व, महिमा और उसकी प्राप्ति के साधनों को विस्तारपूर्वक नहीं समझाया गया। अतएव निर्गुण-निराकार का तत्त्व अर्थात् ज्ञानयोग का विषय भलीभाँति समझाने के लिये तेरहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। इसमें पहले भगवान् क्षेत्र (शरीर) तथा क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के लक्षण बतलाते हैं-
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद: ।। 1 ।।
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर 'क्षेत्र' इस नाम से कहा जाता है; और इसको जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नाम से उनके तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं।।1।।
प्रश्न- ‘शरीरम्’ के साथ ‘इदम्’ पद के प्रयोग का क्या अभिप्राय है और शरीर को क्षेत्र क्यों कहते हैं?
उत्तर- ‘शरीरम्’ के साथ ‘इदम्’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि यह आत्मा के द्वारा देखा और जाना जाता है, इसलिये यह दृश्य है और द्रष्टारूप आत्मा से सर्वथा भिन्न है। तथा जैसे खेत में बोये हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इस शरीर में बोये हुए कर्म-संस्कार रूप बीजों का फल भी समय पर प्रकट होता रहता है। इसलिये इसे ‘क्षेत्र’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त इसका प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, इसलिये भी इसे क्षेत्र कहते हैं और इसीलिये पंद्रहवें अध्याय में इसको ‘क्षर’ पुरुष कहा गया है। इस क्षेत्र का स्वरूप इस अध्याय के पाँचवें श्लोक में संक्षेप में बतलाया गया है।
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