श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
उत्तर- इससे भगवान् ने अन्तरात्मा द्रष्टा का लक्ष्य करवाया है। मन, बुद्धि, इन्द्रिय, महाभूत और इन्द्रियों के विषय आदि जितना भी ज्ञेय (जानने में आने वाला) दृश्य वर्ग है- सब जड़, विनाशी, परिवर्तनशील है। चेतन आत्मा उस जड़ दृश्यवर्ग से सर्वथा विलक्षण है। यह उसका ज्ञाता है, उसमें अनुस्यूत है और उसका अधिपति है। इसीलिये इसे ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। इसी ज्ञाता चेतन आत्मा को सातवें अध्याय में ‘पराप्रकृति’[1], आठवे में ‘अध्यात्म’[2] और पंद्रहवें अध्याय में ‘अक्षर पुरुष’[3] कहा गया है। यह आत्मतत्त्व बड़ा ही गहन है, इसी से भगवान् ने भिन्न-भिन्न प्रकरणों के द्वारा कहीं स्त्रीवाचक, कहीं नपुंसकवाचक और कहीं पुरुषवाचक नाम से इसका वर्णन किया है। वास्तव में आत्मा के विकारों से सर्वथा रहित, अलिंग, नित्य, निर्विकार एवं चेतन-ज्ञानस्वरूप है। प्रश्न- ‘तद्विदः’ का क्या भाव है? उत्तर- इस पद में ‘तत्’ शब्द के द्वारा ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ दोनों का ग्रहण होता है। उन दोनों (क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ) को जो यथार्थरूप में भलीभाँति जानते हैं, वे ‘तद्विदः’ है। कहने का अभिप्राय यह है कि तत्त्ववेत्ता महात्माजन यह बात कहते हैं, अतएव इसमें किसी भी शंका के लिये अवकाश नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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