श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले श्लोक में संजय ने अर्जुन के विषाद वर्णन किया है तथा दूसरे और तीसरे में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मोह और कायरतायुक्त विषाद की निन्दा करते हुए उन्हें युद्ध के लिये उत्साहित किया है। चौथे और पाँचवें में अर्जुन ने भीष्म-द्रोण आदि पूज्य गुरुजनों को मारने की अपेक्षा भिक्षान्न के द्वारा निर्वाह करना श्रेष्ठ बतलाया है। छठे में युद्ध करने या न करने के विषय में संशय करके तथा सातवें में मोह और कायरता के दोष का वर्णन करते हुए भगवान् के शरण होकर उनसे कल्याणप्रद उपदेश करने के लिये प्रार्थना की है और आठवें में त्रिलोकी के निष्कण्टक राज्य को भी शोक-निवृत्ति में कारण न मानकर वैराग्य का भाव प्रदर्शित किया है। उसके बाद नवें और दसवें में संजय ने अर्जुन के युद्ध न करने के लिये कहकर चुप हो रहने और उस पर भगवान् के मुसकराकर बोलने की बात कही है। तदनन्तर ग्यारहवें से भगवान् ने उपदेश का आरम्भ करके बारहवें और तेरहवें में आत्मा की नित्यता और निर्विकारता का निरूपण करते हुए चौदहवें में समस्त भोगों को अनित्य बतलाकर सुख-दुःखादि द्वन्द्वों को सहन करने के लिये कहा है और पन्द्रहवें में उस सहनशीलता को मोक्षप्राप्ति में हेतु बतलाया है। सोलहवें में सत् और असत् का लक्षण कहकर सत्रहवें में ‘सत’ और अठारहवें में ‘असत्’ वस्तु का स्वरूप बतलाते हुए अर्जुन को युद्ध करने की आज्ञा दी है। उन्नीसवें में आत्मा को मरने या मारने वाला समझने वालों को अज्ञानी बतलाकर बीसवें में जन्मादि छः विकारों से रहित आत्मस्वरूप का निरूपण करते हुए इक्कीसवें में यह सिद्ध किया है कि आत्मतत्त्व का ज्ञाता किसी को भी मारने या मरवाने वाला नहीं बनता। तदनन्तर बाईसवें में मनुष्य के कपड़े बदलने का उदाहरण देते हुए शरीरान्तरप्राप्ति का तत्त्व समझाकर तेईसवें से पचीसवें तक आत्मतत्त्व को अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अषोष्य तथा नित्य, सर्वगत, स्थाणु, अचल, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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