श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
प्रश्न- ‘येन’ पद यहाँ किसका वाचक है तथा उसके द्वारा पृथक्-पृथक् भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित देखना क्या है? उत्तर- ‘येन’ पद यहाँ संख्ययोग के साधन से होने वाले उस अनुभव का वाचक है, जिसका वर्णन छठे अध्याय के उनतीसवें श्लोक में और तेरहवें अध्याय के सत्ताइसवें श्लोक में किया गया है। तथा जिस प्रकार आकाश-तत्त्व को जानने वाला मनुष्य घड़ा, मकान, गुफा, स्वर्ग, पाताल और समस्त वस्तुओं के सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही आकाश-तत्त्व को देखता है- वैसे ही लोकदृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले समस्त चराचर प्राणियों में उस अनुभव के द्वारा जो एक अद्वितीय अविनाशी, निर्विकार ज्ञानस्वरूप परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से व्याप्त देखना है- अर्थात् लोकदृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाले समस्त प्राणियों को और सवयं अपने को एक अविनाशी परमात्मा से अभिन्न समझना है- यही पृथक्-पृथक् भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभाग रहित देखना है। प्रश्न- उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान- उस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो ऐसा यथार्थ अनुभव है, वही वास्तव में सात्त्विक ज्ञान यानी सच्चा ज्ञान है। अतः कल्याणकामी मनुष्य को इसे ही प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त जितने भी संसारिक ज्ञान हैं- वे नाममात्र के ही ज्ञान हैं- वास्तविक ज्ञान नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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