श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षोडश अध्याय
दैवीसंपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि पहले श्लोक से लेकर तीसरे श्लोक तक सात्त्विक गुण और आचरणों के समुदायरूप जिस दैवी-सम्पदा का वर्णन किया गया है, वह मनुष्य को संसारबन्धन से सदा के लिये सर्वथा मुक्त करके सच्चिदानन्दघन परमेश्वर से मिला देने वाली है- ऐसा वेद, शास्त्र और महात्मा सभी मानते हैं। प्रश्न- आसुरी-सम्पदा बन्धन के लिये मानी गयी है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि दुर्गुण और दुराचाररूप जो रजोमिश्रित तमोगुण प्रधान भावों का समुदाय है, ही आसुरी-सम्पदा है- जिसका वर्णन चौथे श्लोक में संक्षेप से किया गया है। वह मनुष्य को सब प्रकार से संसार में फँसाने वाली और अधोगति में ले जाने वाली है। वेद, शास्त्र और महात्मा सभी इस बात को मानते हैं। प्रश्न- अर्जुन को यह कहकर कि ‘तू दैवीसम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है, अतः शोक मत कर’ क्या भाव दिखलाया गया है? उत्तर- इससे भगवान् ने अर्जुन को आश्वासन देते हुए यह कहा है कि तुम स्वभाव से ही दैवीसम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए हो, दैवी-सम्पदा के सभी लक्षण तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं। और दैवी-सम्पदा संसार से मुक्त करने वाली है, अतः तुम्हारा कल्याण होने में किसी प्रकार का भी संदेह नहीं है। अतएव तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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