श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
उत्तर- तेरहवें से लेकर उन्नीसवें श्लोक तक भगवान् को प्राप्त सिद्ध भक्तों के लक्षणों का वर्णन है और इस श्लोक में उन उत्तम साधक भक्तों की प्रशंसा की गयी है, जो इन सिद्धों से भिन्न हैं और सिद्ध भक्तों के इन लक्षणों को आदर्श मानकर उनका सेवन करते हैं। यही भेद दिखलाने के लिए ‘तु’ पद का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- श्रद्धायुक्त भगवत्परायण पुरुष किसे कहते हैं? उत्तर- सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् भगवान् के अवतारों में, वचनों में एवं उनके गुण, प्रभाव ऐश्वर्य और चरित्रादि में जो प्रत्यक्ष के सदृश सम्मानपूर्वक विश्वास रखता हो- वह श्रद्धावान् है। परमप्रेमी और परम दयालु भगवान् को ही परम गति, परम आश्रय एवं अपने प्राणों के आधार, सर्वस्व मानकर उन्हीं पर निर्भर और उनके किये हुए विधान में प्रसन्न रहने वाले को भगवत्परायण पुरुष कहते हैं। प्रश्न- उपर्युक्त सात श्लोकों में वर्णित भगवद्भक्तों के लक्षणों को यहाँ धर्ममय अमृत के नाम से कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- भगवद्भक्तों के उपर्युक्त लक्षण ही वस्तुतः मानवधर्म का सच्चा स्वरूप है। इन्हीं के पालन में मनुष्य-जन्म की सार्थकता है क्योंकि इनके पालन से साधक सदा के लिये मृत्यु के पंजे से छूट जाता है और उसे अमृत स्वरूप भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। इसी भाव को स्पष्ट समझाने के लिये यहाँ इस लक्षण-समुदाय का नाम ‘धर्ममय अमृत’ रखा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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